शनिवार, 23 अप्रैल 2016

मैक्लोडगंज यात्रा: दूसरा दिन - कांगडा का किला, ब्रजेशवरी देवी मंदिर और मैक्लोडगंज

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10 अप्रेल 2016
कल यानी 9 अप्रेल को हम लोग दिल्ली से  चलकर कांगडा पहुच गये थे।  रात को होटल में डिनर के समय तय किया कि अगले दिन यानी आज दिन में कांगडा घूमेंगे और शाम तक धर्मशाला या मैक्लोड्गंज पहुच जायेंगे। सुबह सबेरे 7 बजे तक घूमने निकल जाना तय हुआ, मगर आज जब सो कर उठे  तो साढे सात बज चुके थे। जल्दी से तैयार होकर हम घूमने निकल लिए। पहले ब्रजेशवरी देवी मंदिर गये मैं और विनोद। जी हॉ ! विवेक मूर्ति पूजा में यकीन नही करता। हालांकी मूर्ति पूजा के ऐसे समर्थक तो हम भी नही हैं लेकिन अब हिमाचल आयें और कोई भी मंदिर ना देखें ऐसा तो मुश्किल ही था हम दोनो के लिये। कांगडा में वैसे भी कई प्रसिद्द मंदिर हैं, जैसे ज्वाला जी मंदिर, चिंतपूर्णी माता मंदिर,  ब्रजेश्वरी देवी मंदिर, बैजनाथ मंदिर, मसरूर के रॉक कट मंदिर। कहते हैं ज्वाला जी मंदिर मे कोई मूर्ति नही है। बस पृथ्वी के अंदर से 9 ज्वालायें निकल रही हैं जो लगातार प्रज्वलित रहती हैं। और मुगल सम्राट अकबर ने इस मंदिर में सोने का छत्र चढाया था।

खैर बाकी तो और कोई मंदिर हम देख नही पाये  मगर ब्रजेश्वरी देवी मंदिर कांगडा शहर में ही है तो मैं और विनोद माता के दर्शन करने चले गये। विवेक रास्ते मे ही रूक गया। मंदिर में काफी भीड थी। शायद 1-2 दिन पहले ही नवरात्र शुरू हुए थे। बहुत लम्बी लाइन लगी थी। अत्यधिक भीड होने के कारण हम लोग मंदिर के गर्भ गृह तक नही गये बस प्रांगण से  ही माता को प्रणाम करके चल दिये। "माता सबका भला करें"। प्रसाद  भी हमने कुछ नही चढाया। विनोद के कहने पर हमने एक नारियल ले लिया। दोनो ने मिल कर वही चढा दिया। बस रास्ते मे जितनी भी बच्चियां हमें माता का  रूप भरे मिली हमने सबको 1-1,2-2  रुपये,जितने भी हमारे पास थे, दे दिये। काश ! हमने वो नारियल वाले पैसे भी बच्चियों को ही बांट दिये होते।

माता के दर्शन करने के बाद पेट पूजा की याद आई तो मेंन चौराहे वाले ढाबे पर आलू के पराठों का आनंद लिया गया। नाश्ता करके फिर अपनी मंजिल - कांगडा फ़ोर्ट की तरफ निकल चले। कांगडा का किला शहर से दो -  ढाई किमी दूर पुराना कांगडा में स्थित है। इसे नगरकोट का किला भी कहा जाता है। काँगड़ा पहले 'नगरकोट' के नाम से ही प्रसिद्ध था और ऐसा कहा जाता है कि इसे राजा सुसर्माचंद ने महाभारत के युद्ध के बाद बसाया था। कांगडा का किला बाणग़ंगा और मांझी नदियों के संगम पर बना हुआ है।  यह किला 350 फीट ऊंचा है। इस किले पर अनेक हमले हुए हैं। सबसे पहले कश्मीर के राजा श्रेष्ठ ने 470 ई. में इस पर हमला किया था। 1886 में यह किला अंग्रेजों के अधीन हो गया। किले के सामने लक्ष्मीनारायण और आदिनाथ के मंदिर बने हुए हैं जो अब पूरे किले के साथ-2 जर्जर हालत में हैं। किले का मुख्य द्वार रणजीतसिंह द्वार के नाम से जाना जाता है। मुख्य द्वार के पास ही भारतीय पुरातत्व विभाग का संग्रहालय है। प्रवेश के लिए पंद्रैह रूपये का टिकट भी लगता है।

 इस किले के बारे में घुम्मकड "नीरज जाट" जी ने बहुत खूब लिखा है -
          " किला - जहाँ कभी एक सभ्यता बसती थी। आज वीरान पड़ा हुआ है। भारत में ऐसे गिने-चुने किले ही हैं, जहाँ आज भी जीवन बसा हुआ है, नहीं तो समय बदलने पर वैभव के प्रतीक ज्यादातर किले खंडहर हो चुके हैं। लेकिन ये खंडहर भी कम नहीं हैं - इनमे इतिहास सोया है, वीरानी और सन्नाटा भी सब-कुछ बयां कर देता है।"

  किले का पूर्ण इतिहास वहां लगे एक नोटिस बोर्ड पे लिखा है  जिसकी फोटो नीचे संलग्न की गयी है। किला घूमनें के  बाद हम लोग मेक्लोड्गंज के लिये रवाना हो गये।


सुबह होटल की छत पर फोटो-सेशन के दौरान लिया गया

कांगडा बस अड्डे से ब्रजेशवरी देवी मंदिर की और जाता मेंन रास्ता

किला और उसके पीछे वाली पहाडी पर स्थित जयंती माता मंदिर

कांगडा का किला

किले के इतिहास को दर्शाता एक बोर्ड। इस पर किले का पूरा इतिहास लिखा है।

सन् 1905 में कांगडा घाटी में एक विनाशकारी भूकम्प आया था। जिसमें खूब तबाही हुई थी। जिससे यह किला भी पूर्ण रूप से क्षतिग्रस्त हो गया था। जिसका बाद में जीर्णोद्धार किया गया।

मुख्य द्वार की और विवेक और मै

किले से दिखती धौलाधार की बर्फीली चोटियां

रणजीत सिंह द्वार के पास विवेक

किले के उपर से

जरा जूम करके देखें

उपर किले मे स्थित मंदिर में पूजा के लिये जाते एक पुजारी जी और जजमान

किले के उपर फोटो-सेशन ---विवेक

और....साथी साथ छोड गया। जो चिडिया बैठी रह गयी है उसके एक्स्प्रेशेंस (हाव-भाव) लाजवाब हैं।

किले से लिया गया धौलाधार रेंज का एक और फोटो

मरम्म्त का कार्य भी टूटे-फूटे झरोखों का इतिहास छुपा नही सका

"वो देख विवेक,क्या जबरा सीन है "

जूम करके लिया गया धौलाधार का मनोहारी दृश्य

किले में स्थित लक्ष्मीनारायण मंदिर और उस पर गजब की नक्काशी

किले के दांयी ओर बाणगंगा

किले से पीछे की तरफ कहीं दूर कोई हिमाचली - देहाती शूटिंग चल रही है। चित्र केमरा जूम करके लिया गया है ।

लक्ष्मीनारायण मंदिर की तरफ जाता विवेक--नमन करने नही नक्काशी और शिल्पकला देखने


किले में घूमनें के दौरान लिया गया सबसे शानदार चित्र ---ये शायद पाख्ता है।

"मैं और मेरे चश्मे में विनोद"
दूसरे दिन की बाकी यात्रा अभी अगले भाग में जारी .......


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बुधवार, 20 अप्रैल 2016

यात्रा की शुरूआत



ना जाने कब से ब्लोग लिखने की इच्छा ने दिल मे घर कर रखा था। बडी इच्छा थी कि मै भी कुछ जरूर लिखूं लेकिन क्या और कैसे शुरुआत हो ये नही समझ आ रहा था। ऊपर से ये सरकारी नौकरी का महा बिजी श्ड्यूल। चलिये पहले कुछ अपने बारे में बात हो जाये ब्लॉग- ब्लूग तो फेर भी लिखा जागा।

"तो जी, मैं मोहित धामा, मेरठ उत्तर प्रदेश का रहने वाला हूँ। पेशे से सरकारी कम्पनी ( भारत हैवी ईलेक्ट्रिकल्स लिमिटिड, हरिद्वार) मे वरिष्ठ अभियंता के पद पर कार्यरत हूँ। इसके पहले मैं  BHEL के दिल्ली स्थित कार्यालय मे  5 साल तक रहा हूँ।"

हाँ तो भाई अब बात करते हैं अपनी यात्रा के बारे मे। मेरे  दिल्ली वाले ऑफिस के दो दोस्तो (विनोद और विवेक) के साथ पिछ्ले साल ऑक्टूबर मे मैं देवरिया ताल, चोपता एवं तुंगनाथ की यात्रा पर गया था। हिमालय में हम तीनो की ये पहली यात्रा थी। विनोद हालाकी मेरा सीनियर और विवेक जूनियर है। लेकिन हम लोगो मे इस प्रकार की कोई फॉर्मलिटी नही है और हम तीनो बहुत ही अच्छे दोस्त हैं। अ‍पितु हमारे पूरे दिल्ली वाले ऑफिस मे ऐसा ही बगैर सीनियर और जूनियर के दोस्ती वाला ही कल्चर है। विनोद और विवेक दोनो के पास ही एकदम नयी बुलेट बाइक हैं। देवरिया ताल, चोपता एवं तुंगनाथ की यात्रा हमने बुलेट से ही की थी। क्या खूब मजा आया था उस यात्रा में !

तो  जी इस बार जैसे ही अप्रेल माह मे घुम्मकडी करने की बात हुई तो सर्वसम्मती से ये तय हुआ कि एक बार उत्तराखंड तो देख ही लिया है इस बार हिमाचल चलते हैं। हिमाचल मे कांगडा, धर्मशाला, मेक्लोड्गंज तथा आगे त्रियुंड तक ट्रैक करना तय हुआ। 9 से 13 अप्रेल तक यात्रा का समय तय हुआ। बंदे वोही हम तीन वेल्ले(मेरी धर्मपत्नी जी के कथनानुसार ) मैं, विनोद और विवेक। पिछली बार देवरिया ताल, चोपता एवं तुंगनाथ वाली यात्रा पर मुझे पूरे रास्ते अपनी पीठ पर बैग लटकाना पडा था तो बडी  दिक्कत हुई थी। अतः इस बार हम लोग कुछ ऐसा इंतजाम  करके जाना चहते थे ताकि मुझे या किसी को भी ऐसा अन्यथा कष्ट ना झेलना पडे। इसीलिये विवेक यात्रा से  4-5 दिन पहले बाजार जा कर पीछे वाली सीट पर लटकाने वाले बैग ले आया था।

अपने - 2  ऑफिस से छुट्टी लेकर हमने 9 अप्रेल को यात्रा की शुरूआत कर दी। विनोद और विवेक दोनो दिल्ली से अपनी बुलेट से आने वाले थे। जबकी मैं  हरिद्वार से अम्बाला बस से पहुचने वाला था। अम्बाला मे ही हम तीनो को मिलना  था। मैं एक दिन पहले ही यानी 8 तारीख की शाम को सहारनपुर स्थित अपनी ससुराल पहुच गया था ताकि सुबह जल्दी निकल कर टाइम से अम्बाला पहुच सकूं। 9 अप्रेल की सुबह हमारी हिमाचल यात्रा की शुरूआत हो गयी। लगभग तीन-साढे तीन घंटे बस मे खपकर मैं अम्बाला पहुचा। बल्कि पहुचा क्या अम्बाला से 8 किलोमीटर पहले एक भयानक जाम मे फंस गया। जाम इतना बुरा था कि 1-2 घंटे से पहले खुलने की उम्मीद कतई नही थी। उधर विनोद और विवेक भी कब के अम्बाला पहुच चुके थे और अम्बाला कैंट स्टेशन के पास मेरा इंतजार कर रहे थे। आंखिरकार जाम ना खुलता देख मैंने विनोद को उसी स्थान पर बुलाया तब कहीं जाके मैं 11:30 बजे तक अम्बाला पहुच सका।

अम्बाला मे हम लोगो ने कुछ जलपान आदि किया और मेरा व विनोद का बैग विवेक वाली बाइक पर बांध दिया। अम्बाला से हिमाचल जाने के दो रास्ते हैं एक चंडीगढ होते हुए शिमला वाला और दूसरा रोपड-कीरतपुर-आनंदपुर साहिब-उना होते हुए कांगडा -धर्मशाला वाला रास्ता। हाँलाकि और भी कई रास्ते हरयाणा - पंजाब से हिमाचल जाते हैं। हमें धर्मशाला जाना था इसलिये हम लोग रोपड (नया नाम रूपनगर) वाले रूट पर निकल पडे। तकरीबन ढाई घंटे बाद आनंदपुर साहिब पहुच कर एक पंजाबी ढाबे पर मस्त लन्च किया गया तथा उसके बाद आगे अपनी मंजिल की और बढ चले। आनंदपुर साहिब से लगभग 20 किमी आगे नांगल आता है। नांगल वही फेमस भांखडा-नांगल बांध  वाला। असल मे भांखडा-नांगल दो अलग-2 बांध हैं लेकिन पास-2 हैं इसलिये शायद भांखडा-नांगल बांध मिला के बोला जाता है। सुना तो हम सब भारतीयो ने है ही इसके बारे में।

नांगल पार करके 10-12 किमी आगे कहीं हम हिमाचल मे प्रवेश कर जाते हैं। आधे-एक घंटे मे ऊना पार करके हम लोग अम्ब पहुचे। अम्ब के आगे पहाडी रास्ता शुरु हो जाता है। एक रास्ता अम्ब से  ज्वालाजी  होते हुए कांगडा जाता है जबकि एक और रास्ता अम्ब से 4 किमी आगे मुबारकपुर से शुरु होता है। और देहरा होते हुए कांगडा-धर्मशाला जाता है। ये रास्ता अम्ब वाले रास्ते से अच्छा बना हुआ है। तो हम मुबारकपुर मे 15 मिनट का टी ब्रेक ले कर इसी रास्ते पर बढ चले। अभी शाम के पोने पांच बजे थे, और मुबारकपुर से धर्मशाला लगभग 90 किमी दूर है। तय हुआ के अंधेरा होने के बाद यात्रा नही करेंगे चाहे कंही तक पहुचे। देहरा-रानीताल होते हुए करीब सात-साढे सात बजे जब हम कांगडा पहुंचे तो अंधेरा हो चुका था। हालॉकी आगे धर्मशाला केवल 25 किमी ही रह जाता है लेकिन हमने कांग़डा मे ही रुकने का प्लान बना लिया। एक तो हम पहले ही तय कर चुके थे के रात मे ट्रैवल नही करना है और फिर कल वैसे भी हमे कांग़डा फोर्ट और ब्रजेष्वरी देवी मंदिर देखना है तो सुबह फिर धर्मशाला से कांग़डा वापस आना पडता। इसिलिये एक चाय की दुकान पे चाय पीने के साथ-2 होटल की जानकारी ली। होटल पहुचकर घर वालो को कांग़डा तक पहुचने की सूचना दी और  डिनर कर के सो गये।

कांगडा में होटल से दिखता कांगडा शहर और धौलाधार के बर्फीले पहाड। 4000 मीटर से भी ज्यादा उंचे हैं ये पहाड

अगले दिन  सुबह लिया गया कांगडा शहर और धौलाधार का फोटो

एक और

कांगडा घाटी में गेंहू की खेती बडे पैमाने पर होती है

कांगडा घाटी में ही कहीं रास्ते में

अगले दिन  सुबह होटल की छत से लिया गया एक और फोटो
अ‍गले भाग में जारी....

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