रविवार, 20 मई 2018

पिंडारी ग्लेशियर यात्रा: हरिद्वार से गैरसैण

12 मई 2018, शनिवार

उत्तराखंड के चमोलीबागेश्वर और पिथौरागढ  जिलों के मध्य स्थित उच्च  हिमालयी क्षेत्र में नंदा देवी पर्वतमाला रेंज है जिसमें भारत की दूसरी सबसे ऊंची चोटी नंदादेवी (7816 मीटर) के साथ-नंदाघुंटीनंदाकोटनंदाखाटत्रिशुल आदि अनेकों आसमान छूती चोटियां हैं। नंदादेवी के आसपास इन सभी चोटियों समेत ये पूरा इलाका नंदा देवी नेशनल पार्क के नाम से जाना जाता है। इस नेशनल पार्क को 1988 में यूनेस्को द्वारा प्राकृतिक महत्व की विश्व धरोहर का सम्मान भी दिया जा चुका है। नंदा देवी नेशनल पार्क कुमाऊँ और गढवाल दोंनों मंडलों में फैला है। जहाँ इसके गढवाल वाले भाग में रुपकुंड झील है वहीं कुमाऊं वाले भाग में पिंडारीकफनीसुंदरढूंगा नमिकहीरामणीमिलमनंदादेवी ईस्ट इत्यादि कईं ग्लेशियर मौजूद हैं।  पिछले साल अक्टूबर माह में मैं रुपकुंड झील देख चुका हूं। इसलिए इस बार जब कुमाऊं घूमनें का मन हुआ तो दिमाग में आया कि पिण्डारी ग्लेशियर चला जाये। वैसे मैं काफी समय से पिण्डारी जाने के बारे में सोच भी रहा था। जैसे ही इस बारे में गांव वाले दोस्त मोनू से बात की तो वो तुरंत राजी हो गया। उसने बोला यार अपने केदारनाथ और बद्रीनाथ वाली यात्रा के साथी विकास और पंडत से भी पूछ लेते हैं। मैंने कहा ठीक है भाई वो लोग भी चलना चाहें तो कोई दिक्कत नही है। मगर उनको बता देना कि कोई मंदिर वगरह नही जा रहे हैं और कम से 60 किमी की पैदल ट्रैकिंग भी करनी पडेगी। मोनू ने विकास से बात की और मैंने पंडत से। दोनो ने ही चलने से मना कर दिया। मेरा और मोनू का जाना पक्का हो गया। तय किया कि 12 मई को हरिद्वार से निकलेंगे। 

अब बात करते हैं पिण्डारी ग्लेशियर और पिंडर नदी के बारे में। पिण्डारी ग्लेशियर बागेश्वर जिले की कपकोट तहसील में पडता है। पिण्डारी ग्लेशियर समुद्रतल से लगभग 3700 मीटर की ऊंचाई पर नंदाकोट, चांगुछ और नंदाखाट पर्वतशिखरों के बेस में फैला हुआ है। पिण्डारी ग्लेशियर से निकलने वालीं पिंडर नदी उत्तराखंड की एकमात्र नदी है जो कुमाऊँ से निकलकर गढ़वाल जाती है। वरना कुमाऊँ की सभी नदियां सिर्फ कुमाऊँ में बहती हैं और गढ़वाल की सभी नदियां केवल गढवाल में। पिंडर घाटी क्षेत्र में पिंडारी ग्लेशियर के अलावाकफनी तथा सुंदरढूंगा/मैकतोली आदि ग्लेशियर हैं। पिंडारी ग्लेशियर पैदल मार्ग में स्थित अंतिम गाँव खाती से इन ग्लेशियरों को जाने के लिए रास्ते अलग हो जाते हैं। बागेश्वर से कपकोट – भराडी होते हुए सौंग गांव तक जीपें जाती हैं। ये दूरी 36 किलोमीटर की है। अब से कुछ साल पहले तक पिण्डारी ग्लेशियर की पैदल यात्रा सौंग से शुरू होती थी जो लोहारखेत होते हुए तकरीबन 2850 मीटर ऊंचा धाकुडी टॉप पार करके खाती गांवद्वालीफुरकिया होते हुए ग्लेशियर तक जाती थी। मगर अब सौंग से भी आगे खर्किया तक की कच्ची मगर मोटरेबल सडक होने की वजह से पैदल मार्ग खर्किया से शुरू होता है जिससे यात्रा के पहले दिन ही धाकुडी धार की खडी चढाई नही चढनी पडती। हाँलाकि अभी भी कुछ लोग सौंग़ या लोहारखेत से ही अपनी यात्रा शुरू करते हैं जबकि कुछ लोग अपनी यात्रा की वापसी इस रास्ते से करते हैं। सौंग - लोहारखेत सरयू नदी की घाटी में स्थित है जबकि खर्किया - खाती गांव पिंडर घाटी में। दोनों नदी घाटियों को एक डांडा या धार अलग करता है जिसे पैदल यात्री धाकुडी में पार करते हैं जबकि खर्किया तक जीप से जाने वाले यात्री विनायक धार में। सिर्फ इस ढांडे या धार की वजह से ही कुमाऊँ में जन्म लेने वाले पिंडर नदी कुमाऊँ नही जाती बल्कि यहाँ से मुडकर गढ़वाल की ओर चली जाती है और करीब डेढ - सौ किलोमीटर का सफर तय करके कर्णप्रयाग में अलकनंदा नदी से मिलती है।

11 तारीख को मोनू मेरे यहाँ आ गया। उसके पास रेनकोट नही था तो हम अनंत वाला रेनकोट ले आये। पिछले पांच - सात दिन से मौसम कुछ खराब सा चल रहा था। केदारनाथ, बद्रीनाथ, हेमकुंड साहिब समेत तमाम उच्च हिमालयी क्षेत्रों में अच्छी खासी बर्फबारी भी हुई थी। वैसे भी उच्च हिमालय क्षेत्र में तो हर रोज शाम के बाद मौसम बदलता ही है। इसलिए रेनकोट ले जाना जरुरी था। पूरी शाम पुराने दोस्तों को याद किया, बचपन की ढेरों यादे ताजा की। कैसे हम मौहल्ले के सारे लडके गांव के रजवाहे में नहाने जाया करते थे, दूसरे मौहल्ले की टीम से क्रिकेट मैच खेला करते थे। स्कूल के मास्टर जी से लेकर मसखरे ताऊ तक सभी की चर्चा हुई। डिनर करते समय अगले दिन की प्लानिंग हुई। तय किया कि इस बार आना जाना अलग-2 रास्तों से करेंगे। गढवाल के रास्ते जायेंगे और कुमाऊं के रास्ते वापस आयेंगे। कर्णप्रयाग से आगे थराली - ग्वालदम - बैजनाथ वाले रास्ते के बजाय आदिबद्री - गैरसैण - द्वाराहट - सोमेश्वर वाले रास्ते से बागेश्वर जाना तय हुआ। हाँलाकि गैरसैण वाले रास्ते से जाने पर हमें कम से कम 50-60 किमी ज्यादा चलना पडता मगर इस रास्ते को चुनने के दो कारण थे। एक तो अभी 3-4 मई को थराली से पहले नरायणबगड में बादल फटा था जिससे वो रास्ता खराब हो गया था और दूसरे हमें आदिबद्री भी देखना था।  

12 मई को साढे आठ बजे के करीब हम लोग हरिद्वार से निकल लिए। हाँ भाई, वाहन वही है, अपनी स्कूटी, ज्युपिटर! हमेशा की तरह चीला वाला रास्ता पकडा और घंटे भर में ऋषिकेश जा पहुंचे। ऋषिकेश पहुंचकर भयंकर ट्रैफिक से सामना हुआ जो कि शिवपुरी तक रहा। आज शनिवार था यानि विकेंड की शुरुआत! और दिल्ली - एनसीआर की बडी-बडी एम.एन.सी. में काम करने वाले लोग वीकेंड में मस्ती करने, राफ्टिंग वगरह करने के लिए ऋषिकेश आये हुए थे। शिवपुरी निकलने के बाद ही इन लोगों से पीछा छूटा। मगर इसके बाद दूसरी कहानी शुरू हो गयी। पूरे गढवाल में चारधाम यात्रा तो चल ही रही है, साथ ही पिछले एक साल से "आल वेदर रोड" का काम भी चल रहा है। "आल वेदर रोड" के तहत उत्तराखंड की चारधाम यात्रा के अंतर्गत आने वाली सडकों का चौडीकरण किया जा रहा है। ऋषिकेश - गंगोत्री रोड के साथ-साथ बद्रीनाथ मार्ग पर भी काम चल रहा है। "आल वेदर रोड" के निर्माण के चलते सडक किनारे पेडों को काटा जा रहा है। पहाड को छीला जा रहा है और जगह-2 मलबा खाई में भरा जा रहा है। जिसके चलते पूरे रास्ते पर सडक किनारे छायादार वृक्षों की कमी हो गयी है। मगर और कोई दूसरा उपाय भी नही है शायद, बिना कोई कीमत चुकाए शायद विकास सम्भव भी नही है। 

विस्तार से बताने की जरुरत नही है कि हम देवप्रयाग, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग होते हुए शाम साढे चार बजे तक कर्णप्रयाग पहुंचे। पूरे रास्ते भयंकर गर्मी थी जिसकी वजह से स्कूटी भी गर्म हो रही थी और श्रीनगर में हमें पूरा एक घंटा रुकना पडा। कर्णप्रयाग से 10 किमी आगे सिमली बेंड से गैरसैण वाला रास्ता पकडा। ठीक-ठाक रास्ता बना हुआ है और ट्रफिक न के बराबर है। यहाँ से 12 किमी दूर आदिबद्री पहुंचने में करीब बीस मिनट लगे। आदिबद्री, उत्तराखंड में स्थित सात बद्री में से एक है। मूलरूप से आदिबद्री सोलह मंदिरों का समूह था, जिनकी संख्या वर्तमान में चौदह है। सभी मंदिर आठवीं सदी से बारहवीं सदी के बीच के बताये जाते हैं और पत्थरों से बने हैं। इस समूह का मुख्य मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है तथा अन्य गौण मंदिर शिव, सत्यनारायण, अ‍न्नपूर्णा, गरुड, गणेश, राम-लक्ष्मण-सीता, हनुमान, दुर्गा व जानकी आदि के हैं। यहाँ अभी भी पूजा होती है और मंदिर के पुजारी श्री चक्रधर थपलियाल जी हैं जो पास के ही थापल गांव के रहने वाले हैं। इनके पुरखे कई पीढियों से इस मंदिर के पुजारी रहे हैं। उत्तराखंड के ज्यादातर मंदिरों की तरह यहाँ भी कपाट सिस्टम है। आदिबद्री मंदिर के कपाट साल में एक माह के लिए बंद होते हैं और मकर संक्रांति के दिन खुलते हैं। पिछले कुछ वर्षों से इस मंदिर समूह का संरक्षण भारतीय पुरातत्व विभाग के अधीन है। 

आदिबद्री दर्शन करके हम लोग आगे गैरसैण के लिए निकल लिए। दिन छिपने में अभी भी करीब एक घंटे का समय था। आराम से देवालीखाल, कालीमाटी, भराडीसैण होते हुए दिन छिपने से पहले हम लोग गैरसैण पहुंच गये। कालीमाटी में उत्तराखंड सरकार के चाय के बागान हैं। जबकि भराडीसैण में उत्तराखंड की स्थाई विधानसभा का निर्माण सन 2014 में किया गया है जहाँ अब लगभग हर वर्ष उत्तराखंड विधान सभा का 2-4 दिन का सत्र जरुर होता है। 
गैरसैण और राजधानी विवाद के बारे में कुछ विचार:- समूचे उत्तराखंड के बीचो-बीच में स्थित है यहाँ का यह बहुचर्चित नगर। कोई उत्तराखंड के बारे में थोडा बहुत भी जानकारी रखता है तो ऐसा मुमकिन ही नही है कि उसने गैरसैण के बारे में ना सुना हो। गैरसैण का नाम उत्तराखंड राज्य के गठन की परिकल्पना के समय से ही स्थाई राजधानी के लिए प्रस्तुत है। मगर इसके साथ आज तक सिर्फ अन्याय ही हुआ है। राजधानी के नाम पर सिर्फ मजाक ही बना है यह शहर। राज्य के गठन के समय से अब तक हुई समस्त रायशुमारियों में सबसे अधिक लोगों ने गैरसैण को ही राजधानी के लिए सबसे उपयुक्त बताया है। परंतु राजनीति जो न करे वही कम है। अगस्त 2008 में प्रस्तुत दीक्षित आयोग की रिपोर्ट में मैदानी क्षेत्र को आगे करते हुए देहरादून और काशीपुर को राजधानी के लिए उपयुक्त बताया गया। जबकि भौगोलिक दशाओं और अन्य कारकों का बहाना बनाते हुए कहा गया कि गैरसैण राजधानी के लिए उचित जगह नही है! जो पार्टियांं जनहितों की बात करते हुए गैरसैण का पक्ष लेती थी, अब वही अपने स्वार्थों के लिए गैरसैण विरोधी हो गई हैं। शायद उनका काफी कुछ देहरादून में है। गैरसैण के विरोध में सबसे मजबूत तर्क दिया जाता है कि यह पहाड में ज्यादा दूर है और यहाँ राजधानी बनाने के लिए सरकार को अपने खजाने का बहुत बडा हिस्सा खर्च करना पडेगा। आंखिर बिना खर्च किए कौन सी राजधानी बनी है आज तक? क्या सरकार का सारा खजाना सिर्फ देहरादून, रुद्रपुर, रामनगर आदि मैदानी इलाकों के लिए ही है या फिर चारधाम यात्रा पर पडने वाले इलाकों के लिए, जहाँ से कमाई हो सके। अगर पहाड का एक समान विकास करना ही नही था तो यूपी क्या बुरा था? जहाँ तक दूरी की बात है तो गैरसैण से गौचर लगभग उतना ही दूर है जितना देहरादून से जौलीग्रांट। हाँ रास्ते जरूर पहाडी हैं, लेकिन यह कोई दोष नही है। पहाडी राज्यों के रास्ते पहाडी नही होंगे तो फिर कहाँ के होंगे? अब तक की सरकारों ने यदि ये रास्ते ठीकठाक बना लिए होते तो फिर ये बहाना भी जाता रहता। राज्य के प्रतिएक कोनेंं से गैरसैण बराबर दूरी पर है। ऐसी स्थिति अस्थाई राजधानी देहरादून के साथ है क्या? अब राज्य का एक निवासी राजधानी दो दिन में पहुंचे और दूसरा दो घंटे में तो इसे अन्याय ही कहा जायेगा। अंत में मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहूंगा कि भले ही उत्तराखंड सरकार गैरसैण को स्थायी राजधानी बनाये या न बनाये, मगर यहाँ का विकास जरूर होना चाहिए। ताकि आंदोलनकारियों के जिस सपने के साथ उत्तराखंड का निर्माण हुआ था वो जरुर पूरा हो सके। अन्यथा कहीं उत्तराखंड दूसरा यूपी बनकर ही न रह जाये।

खैर अब आपस लौटते हैं अपनी यात्रा पर। आज हमें गैरसैण में ही रुकना था। यहाँ आधा किमी नीचे स्थित ग्वाड गांव में हमारे एक परिचित रहते हैं, हम उन्ही के यहाँ रुके। रात के खाने में भिंडी और दाल मिली। यहाँ से दूधातोली भी ज्यादा दूर नही है। उपर ही दिखता भी है। दूधातोली लगभग 3000 मीटर से अधिक ऊंचा एक बहुत बडा डांडा है। यहाँ भारतीय स्वतंंत्रता के महान क्रांतिकारी वीर चन्द्र सिंह गढवाली की समाधी है। कल भी काफी दूर जाना है, इसलिए खाना खाकर हम लोग जल्दी ही सो गये। 



चार धाम योजना या ऑल वेदर रोड का कार्य प्रगति पर है। 

देवप्रयाग से श्रीनगर के बीच में कहीं पर 




आदिबद्री मंदिर समूह

आदिबद्री मंदिर समूह के बारे में जानकारी देता भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का एक बोर्ड


जी हाँ , विरासत को जरुर संजोकर रखेंं।  

ग्वाड गांव से दिखती गैरसैण की कुछ बिल्डिंग़ - सामने उपर की तरफ  

दूधातोली की पहाडियांं 
अगले भाग में जारी....

इस यात्रा के किसी भी भाग को यहाँ क्लिक करके पढा जा सकता है।
1. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - हरिद्वार से गैरसैंण
2. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - गैरसैंण से खाती गांव
3. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - खाती से फुरकिया 
4. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - फुरकिया से पिंडारी ग्लेशियर और वापस खाती गांव
5. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - खाती से वापस हरिद्वार, नैनीताल होते हुए