शुक्रवार, 13 मई 2016

त्रियुंड: एक रोमांचक जगह




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पिछली पूरी पोस्ट में आप त्रियुंड के बारे में पढ़-पढ कर बोर हो गये होंगे। तो चलिये आज आपको त्रियुंड के बारे में कुछ बताता हूँ। बताता क्या हूँ बस वहाँ लेकर ही चलते हैं आपको। त्रियुंड समुद्र तल से लगभग 2800 मीटर की ऊँचाई पर स्थित एक छोटा सा घास का मैदान है जो इंद्रहार दर्रे की तरफ जाने वाले ट्रैक पर मैक्लोड्गंज से 9 किलोमीटर दूर स्थित है। इंद्रहार 4350 मीटर की ऊँचाई पर स्थित एक दर्रा है जो कांगडा और चम्बा जिलों को जोडता है। वैसे तो त्रियुंड मैक्लोड्गंज से केवल 9 किलोमीटर ही दूर है लेकिन फिर भी यहां जाने का साहस कम ही लोग जुटा पाते हैं। वजह मैक्लोड्गंज की 1700 मीटर की ऊँचाई से इस 9 किलोमीटर मे 2800 मीटर पर पहुँचना यानी प्रति एक किलोमीटर पर 100 मीटर से ज्यादा ऊपर चढना पडता है। सुनने में जितना आसान लगता है़ उतना ही कठिन काम है ये। लेकिन तीन-चार घंटे की पूरी थका देने वाली चढाई के बाद प्रकृति का जों रूप सामने आता है वो इन्सान की सारी थकान मिटा देता है।


वैसे तो हमें कल ही त्रियुंड जाना था मगर बारिश ने हमारा ये प्लान फेल कर दिया। इसीलिए फिर कल दोपहर बाद हमने पूरा मैक्लोड्गंज पैदल छान मारा था और धर्मशाला भी घूम लिया था। रात सोते समय तय किया था कि सुबह जल्दी से उठकर 7-8 बजे तक त्रियुंड के लिये निकल लेना है। 

मैंने इंटरनेट पर त्रियुंड के बारे मे सर्च किया था। अगर आप गूगल मैप या गूगल अर्थ देखेंगे तो आपको मैक्लोड्गंज से त्रियुंड जाने के दो रास्ते दिखते हैं। एक रास्ता तो भागसू-फाल के उपर से होता हुआ त्रियुंड तक जाता है। मगर यह बहुत ही तेज चढाई वाला रास्ता है और हम जैसों के लिए तो भाई इस रास्ते से जाना महामुष्किल – असम्भव है। दूसरा व कुछ आसान रास्ता धर्मकोट गॉव से आगे गल्लू देवी के मंदिर से शुरु होता है। मै इस रास्ते को थोडा आसान इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि एक तो धर्मकोट मैक्लोड्गंज से 2 किलोमीटर दूर है और फिर गल्लू देवी मंदिर उससे भी एक किलोमीटर आगे है। अत: तीन किलोमीटर का ट्रैक कम हो जाता है।

हमने गल्लू देवी तक जाने के लिए एक टेक्सी वाले से बात किया तो उसने 400 रुपये बताये। ये सुन के मेरा पारा चढ गया। “यार ये आदमी 3-4 किलोमीटर जाने के 400 रुपये मांग रहा है। हम लोग अपनी बुलेट लेकर चलते हैं। वहीं गल्लू देवी मंदिर पर खडी कर देंगे और वापिस आकर उठा लेंगे।“ मगर जब होटल वाले ने कहा कि “ सर रास्ता बहुत ही खराब है आप टेक्सी से ही चले जाओ। वैसे भी इस बेचारे को पहले डेढ किलोमीटर मेंन चौराहे पे जाना होगा और फिर वहां से तीन किलोमीटर गल्लू देवी।“ हम लोग तैयार हो गये। जब गल्लू देवी मंदिर पहुँचे तो समझ आया कि ठीक ही मांग रहा था टेक्सी वाला 400 रूपये। धर्मकोट तक तो रास्ता ठीक सा ही बना है मगर उससे आगे तो है ही नही। बस ऐसे ही पहाड काट कर छोड़ दिया है। ट्रैकिंग वाला ही रास्ता है। ये पहाड वाले ड्राइवर ही ले जा पाते हैं टेक्सी वहां तक हम जैसों की हिम्मत नही है। बुलेट से भी आना बहुत ही मुश्किल होता यहाँ तक।

गल्लू देवी मंदिर के पास ही एक दुकान है। यहाँ हमनें नास्ते मे मैगी और ऑमलेट खाये तथा रास्ते के लिए कुछ जूस, बिस्किट के पैकेट और पानी की बोतल भी ले लिए। दुकान वाले चाचा से पूछा कि त्रियुंड कितनी दूर है तो उन्होंने बताया " 6 किलोमीटर है। तीन घंटे मे पहुँच जाओगे।" मुझे लगा जब ये तीन घंटे बता रहे हैं तो हमे 4-5 घंटे तो पक्का लग जायेंगे। इंटरनेट पर भी काफी लोगो ने ऐसा ही लिख रखा था कि त्रियुंड ट्रैक मे 4-5 घंटे लगते हैं जबकि हम लोग तो पहाड चढने के मामले में अभी नये ही थे। केवल पिछ्ले साल की गयी देवरिया ताल - तुंगनाथ की ट्रैकिंग का ही अनुभव था हमें। तुंगनाथ की चार किलोमीटर की चढाई मे ही हमें ढाई - तीन घंटे लग गये थे और हम थक - पच लिये थे सो अलग। उस ट्रैक के बाद हम लोगो ने महसूस किया था कि ट्रैकिंग स्टिक की मदद से पहाड चढने में थोडी कम परेशानी होती है। इसलिए जब से हम मैक्लोड्गंज आये थे मैं ट्रैकिंग स्टिक वगरह कुछ तलाश कर रहा था। कल बाजार में 1-2 दुकानोंं पर स्टिक की बात भी की थी मगर बहुत महंगी होने के कारण नही खरीदी। लेकिन जैसे ही यहाँ चाचा की दुकान पर लट्ठ रखे देखे तो इस समस्या का भी हल मिल गया। दुकान वाले से पूछा तो उन्होंंने बताया कि एक लट्ठ का एक दिन का किराया 50 रुपये है। बस फिर क्या था! तुरंत 3 लट्ठ छांट लिये गये। 

चाचा की दुकान से हमें एक आदमी ने करेरी गॉव भी दिखाया जहां से करेरी झील के लिए ट्रैक जाता है। काफी सुना है इस झील के बारे में भी, कभी हिम्मत दिखाऊँगा वहॉ जाने की। यदि आप कभी वहॉ जाएंं तो एक बार मुझसे भी पूछ लीजियेगा। 

अपने-2 लट्ठ लेकर हमने चलना शुरू किया। हमारे साथ ही एक लडकी ने भी ट्रैकिंग शुरू की और चुंकि हम सब एक ही मंजिल पर जाने वाले राही थे तो हम साथ-2 ही चलने लगे। बातें हुई तो पता चला कि उसका नाम राधिका है। वो मुम्बई मे रहती है और पेशे से सीए है। बडी बात ये कि वो मुम्बई से अकेली ही घूमने आयी है। रात ही मैक्लोड्गंज पहुँची थी और आज ही त्रियुंड के लिये निकल पडी। वाकई ! आप बहुत बहादुर हो राधिका जी। नहीं तो कितनी लड्कियां हैं जो ऐसी साहसिक यात्राओं पर जाती हैं और उनमें से भला कितनी लडकियां ऐसे अकेली जाती हैं। 

खैर, शुरूआत में ट्रैक थोडा आसान सा है। पथरीला मगर सीधा-2 सा ही रास्ता है ज्यादा चढाई नही है। पूरे रास्ते में पेड बहुत हैंं, इनमें भी बुरांश के पेड़ों के अधिकता है। करीब डेढ-दो किलोमीटर चलने के बाद एक चाय की दुकान मिली। हम लोग अभी नाश्ता करके चले ही थे तो बस यहाँ थोड़ा सा आराम करके हम आगे बढ चले।  रास्ता धीरे-2 और भी पथरीला हो चला था। कुछ देर चलने के बाद एक जगह रुककर जूस पिया गया।

लगभग आधा रास्ता पार करने के बाद एक और चाय की दुकान मिली। यहाँ पूछा कि भाई अभी त्रियुंड कितना आगे है तो जबाब मिला कि अभी तो ढाई-तीन किलोमीटर और है। यहाँ भी हम बिना चाय पिये ही निकल लिये।
अब रास्ता थोडा कठिन होने लगा था। चढाई भी बढ गयी थी। लेकिन लट्ठ होने के कारण हमे कुछ भी परेशानी नही हो रही थी। जहां तुंगनाथ वाले ट्रैक मे हमारी साँस बुरी तरह फूल रही थी वहीं यहाँ ऐसी कोई परेशानी नही आ रही थी। शायद कारण था ऊंचाई। जहाँ त्रियुंड की ऊंचाई 2800 मीटर है वहीं तुंगनाथ का ट्रैक ही 2600 मीटर से शुरू होता है जो 3800 मीटर पर तुंगनाथ और 4000 मीटर पर स्थित चंद्रशिला चोटी तक जाता है। जैसे-2 हम समुद्रतल से उपर जाते हैं। हवा में ऑक्सीजन के कण कम होने लगते हैं शरीर को बराबर मात्रा मे ऑक्सीजन पहुँचाने के लिए फेफडों को ज्यादा काम करना होता है और हमे तेज-2 साँस लेना पडता है। जिससे हमारी साँस फूल जाती है। आंखिर की एक किलोमीटर की चढाई मे राधिका थक गयी तो विनोद ने अपना लट्ठ सको दे दिया। बडे आराम से हम लोग साढे तीन घंटे मे ही त्रियुंड पहुंच गये। सुबह के साढे ग्यारह बज रहे थे। औरपर पहुंचने वालों मे हमारा नम्बर दूसरा-तीसरा ही था। 

क्या जबरदस्त सीन था त्रियुंड मे! सफेद बर्फ वाले धौलाधार के विराट पहाठीक सामने सीना ताने एक दीवार की तरह खडे थे। वहॉ घूमने और थोडी देर तक फोटो खींचने के बाद मैंने इच्छा जाहिर की कि यार चलो आगे चलते हैं। हमें एक विदेशी भी आगे सनोलाइन की तरफ जाता दिखायी दिया। स्नोलाइन कैफे, त्रियुंड से तीन किलोमीटर दूर है लेकिन उसके लिए सामने खडा पथरीला पहाड चढना है। अभी केवल बारह ही बजे थे। हम आराम से दो बजे तक स्नोलाइन पहुँच सकते थे। हाँलाकि मैं वहॉ से भी एक किलोमीटर आगे "इलाका" तक जाना चाहता था। क्योंकि ये एक किलोमीटर तो बिल्कुल सीधा समतल रास्ता है। मैंने सुझाया कि शाम को वापस आकर यहीं त्रियुंड मे ही रुक जायेंगे। दरअसल मैं त्रियुंड मे सुर्यास्त और सुर्योदय भी देखना चाहता था। जब तक ये लोग फोटो खीचने मे लगे रहे, मैंं रात को रुकने के लिए एक टेंट वाले से भी बात कर के आ गया। मगर सामने वाले पहाड के उपर से स्नोलाइन जाने वाले रास्ते को देखते ही तुरंत विवेक और विनोद ने मना कर दिया। मैंने काफी कहा कि राधिका यहां से चाहे तो वापिस चली जायेगी, हम लोग चलते हैं फिर न जाने यहाँ आना हो न हो। मगर मेरी नही सुनी गयी और हम त्रियुंड मे ही दो-ढाई घंटे बिताकर वापिस चल दिए। 

उपर आते समय गल्लू देवी से एक किलोमीटर चलने के बाद हमे एक और रास्ता नीचे उतरता दिखाई दिया था तो हमनें प्लान किया कि वापसी मे इसी रास्ते से उतरेंगे। मगर इसमे भी एक दिक्कत थी। हमारे ये लट्ठ उस दुकान वाले चाचा को कौन वापस करेगा। रास्ते मे उतरते समय कुछ स्थानीय हिमाचली हमें मिले तो हमने उनसे पूछा कि क्या वो ये लट्ठ चाचा को वापिस कर देंगे और उनका किराया 150 रुपए भी अगर हम आपको दें तो क्या आप दे देंगे। कसम से उनका जबाब सुनकर मै तो हतप्रभ रह गया। लट्ठों को वापिस करने के लिए उनको भी पैसे चाहिंंए थे !!! मैंने कहा कि हम अगर इनको वापिस ही ना करे तो ही हमारा क्या बिगडेगा। हम तो इंसानियत के नाते वापिस करना चाहते थे। आंखिर दूसरे रास्ते से उतरते समय जब एक जगह हम थोडा भटक गये तो धर्मकोट की एक आंटी जी ने हमारी मदद की। और वो लट्ठ हमनें उन्ही आंटी जी के घर पर छोड दिए। वापसी मे हम धर्मकोट गांव होते हुए मैक्लोड्गंज पहुँच गये। इससे वापस की यात्रा मे हम 9 किलोमीटर पैदल चले थे। कुल मिलाकर आज 15 किलोमीटर की ट्रैकिंग हो गई थी। होटल पहुंचते ही मै तो पड गया।

ट्रैकिंग शुरू करने से पहले लट्ठबाजी करते हुए विवेक और चौधरी साब

त्रियुंड ट्रैक का रास्ता सही से बना हुआ है और कोई गाइड वगरह ले जाने की जरुरत नही है। 

लठैतों की टोली - विवेक, विनोद और चौधरी साब ! 

त्रियुंड के रास्ते में कहीं से दिखता धर्मशाला 

तीन वेल्ले - मेरी धर्मपत्नी के कथनानुसार 

उबड-खाबड रास्तों से गुजरते चौधरी साब!

रास्ते से लिया गया एक चित्र। उस बर्फ वाले पहाड के नीचे जो घर से दिख रहें हैं वो जगह ही त्रियुंड है। 
विवेक, मैं और राधिका जी। 

फोटो के बीच में एक रास्ता सा दिख रहा है ना। ये ही त्रियुंड ट्रैक है। 
2400 मीटर की ऊँचाई पर स्थित एक अकेली दुकान 
बुरांश - इसके फूलोंं का स्क्वैश बनता है। 

बुरांश के जंगल  
इसी रास्ते से होकर हम आये हैं। 

उपर त्रियुंड तक पहुँचने से थोडा पहले एक जगह विश्राम के दौरान प्रसन्न मुद्रा में विवेक भाई 

लठैत जाट

कुदरत का करिश्मा - एक ऐसा दृश्य जो सारी शरीरिक थकान मिटा कर रोमांच पैदा कर देता है। 

त्रियुंड से सामने दिखती धौलाधार की बर्फीली चोटियां। सामने ही बीच मे कहीं इद्रहार दर्रा है जो 4350 मीटर की ऊँचाई पर है।  

थोडा जूम करके लिया गया इंद्रहार दर्रे पर के पास वाली पहाडी पर स्थित बर्फ का फोटो 
त्रियुंड में वेल्लोंं की टोली 

त्रियुंड मे विवेक, राधिका जी और चौधरी साब। कैमरा देखते ही राधिका जी की खुशी का ठिकाना नहीं रहता था। 

त्रियुंड यात्रा पर आये कुछ विदेशी 
विवेक और बर्फीली पहाडियॉ

त्रियुंड मे बिखरे पडे पत्थर और बीच मे स्थित एक शिवलिंग। वो सामने वाली पहाडी के उपर से होकर रास्ता आगे इंद्रहार दर्रे पर जाता है।

त्रियुंड से दिखता मैक्लोड्गंज,धर्मशाला और दूर तक फैली कांगडा घाटी

बादलों की ओर देखते विनोद भाई - ऊंचे पहाडों पर जैसे-2 दिन बीतता जाता है बादल आने लगते हैं। 


दोपहर बाद  धीरे-2 बादलों ने धौलाधार के पर्वतों को घेरना शुरू कर दिया। चित्र में बांयी ओर दिखता इंद्रहार दर्रा।

देशी जाट के साथ विदेशी भाई
बीड-बिलिंग के पैरा-ग्लाइडर यहॉ तक धावा मारते हैं। यही वो पहाडी है जिसके उस पार इंद्रहार वाले रास्ते पर सनोलाइन है  जहाँ मै जाना चाहता था।

सिर्फ पोज मारने के लिए ही ऐसे बैठा हूं।

इन्ही तम्बुओ में रात को रुकने के लिए बात करके आया था मैं। काश !  विनोद और विवेक मान जाते तो हम आगे सनोलाइन और इलाका तक ट्रैक करके आते। ना जाने अब वहॉ कब जाना हो। 
वैसे तो अगले दिन हमें पालमपुर का टी गार्डन और बैजनाथ मंदिर देखते हुए कल या परसों तक वापिस पहुँचना था। लेकिन घर पर मेरे बेटे आर्य चौधरी की तबियत थोडी खराब हो गयी थी तो बस अगले दिन सुबह हम लोग अपनी वापसी की यात्रा पर निकल पडे। 

अब जल्द ही किसी अगली यात्रा की तैयारी की जायेगी।
अगले दिन सुबह मैक्लोड्गंज से वापस दिल्ली की ओर। हालाँकि मैं रास्ते में अम्बाला में ही उतर जाऊँगा। तुम लोगो के साथ एक बार फिर घूम कर मजा आ गया दोस्तों। जल्द ही किसी और यात्रा पर मिलेंगे। 
 आप सभी का बहुत-2 धन्यवाद । 

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बुधवार, 4 मई 2016

मैक्लोड्गंज व धर्मशाला भ्रमण


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कांगडा फोर्ट घूमने के बाद करीब साढ़े बारह बजे हम लोग धर्मशाला के लिए निकल लिये। तय किया कि  आज धर्मशाला घूमेंगे और रात का स्टे भी धर्मशाला में ही करेंगे। लेकिन एक बार कांगड़ा से निकले तो फिर सीधे मैंक्लोडगंज पहुँचकर ही रुके। धर्मशाला बस अड्डे के पास से एक रास्ता नीचे की तरफ उतरकर धर्मशाला बाइपास से मैक्लोड्गंज जाता है। तो भाई, हमने अकल लगायी कि शहर की भीड से बच के बाइपास से चलते हैं। रास्ता तो अच्छा बना हुआ है लेकिन नीचे उतरने के बाद भयंकर चढाई देखकर हालत पतली हो गई। खैर इसके बाद अगले तीन दिन कभी भी हमने इस बाइपास का प्रयोग नही किया। कांगडा नीचे घाटी में बसा है और समुद्र तल से केवल 700 - 750 मीटर की ऊंचाई पर है जबकि मैक्लोड्गंज 1700-1900 मीटर पर है। धर्मशाला से मैक्लोड्गंज तक 9 किलोमीटर का रास्ता चढ़ाई वाला है। जब हम कांगड़ा मे थे तो गर्मी लग रही थी लेकिन जैसे – 2 मैंक्लोडगंज के समीप पहुच रहे थे तो थोडी-2 ठंड भी लगने लगी थी।

करीब डेढ बजे हम मैंक्लोडगंज पहुँचे और पहुँचते ही केस हो गया। हमेशा की तरह मैं और विनोद एक बुलेट पर थे और विनोद ने अपना हेल्मेट मुझे दे रखा था। जैसे ही हम मेंन चौराहे पर पहुँचे तो एक पुलिस वाले ने थाम लिया “जी साब, आपने हेल्मेट नी पहन रख्खा चलान कट्वाओ!”। हिमाचल के जिस हिस्से मे हम थे वहॉ पंजाबी भाषा खूब बोली और समझी जाती है। पुलिस वाला भी उसी अंदाज मे बोल रहा था। हमने टालने की बहुत कोशिश करी के “भाई हमने – मतलब विनोद ने, तो हेल्मेट यहीं उतारा था रास्ता पूछ्ने को”। मगर वो कहाँ मानने वाला था, ऐसे रास्ता पूछ्ने वालों को तो वो रोज देखता था। आंखिरकार काफी बात करने के बाद भी काम नही बना और हमें चलान कट्वाना पडा। मैक्लोड्गंज पहुँचते ही 200/- रुपये पुज गये। खैर, होटल के बारे में पता किया तो लोगो ने बताया के भागसू नाग की तरफ चले जाओ वहॉ अच्छे होटल्स थोडे सस्ते मिल जयेंगे मेंन मैक्लोड्गंज के मुकाबले। मेंन चौराहे से भागसू नाग 2 किलोमीटर आगे है। भागसू नाग टैक्सी स्टेंड से थोड़ा पहले ही होटल भागसू हाइट्स मे 1000/- का एक सही सा कमरा ले लिया। सवा दो बज चुके थे और भूख बडे जोरो की लगी थी। बस फिर क्या था तुरंत लंच का ऑर्डर दे दिया गया। फटाफट फ्रेश हो कर हम लंच पर टूट पडे। फिर आधे घंटे का आराम करके घूमने निकल पड़े।



सीधे भागसू नाग मंदिर गये। ये मंदिर भगवान भोलेनाथ को समर्पित है। मंदिर के सामने ही प्राकृतिक पानी को रोककर एक छोटा सा स्वीमिंग पूल बना रखा है। काफी जनता स्नान के मजे ले रही थी इसमे लेकिन हमने ये काम बाद के दिनों के लिये छोड दिया। भागसू बाबा को बाहर से ही प्रणाम कर के हम झरने की ओर निकल लिये। मंदिर से भागसू फाल – झरना, लगभग एक - सवा किलोमीटर दूर है। मंदिर के पास से ही झरने पर जाने के लिये पगडन्डी वाला रास्ता है जो कि आगे त्रियुंड तक जाता है जहां हमे कल जाना है। छोटा सा ही झरना है भागसू फाल लेकिन पर्यटक काफी आते हैं यहां और हम जैसे घुमक्कड भी। वाटरफाल पर कुछ फोटो खींच कर हम झरने के पानी के साथ-2 नीचे उतरकर वापिस आ गये। 

मैक्लोड्गंज में तिब्बती लोग बहुतायत में रहते हैं। दरअसल ये लोग साठ के दशक में दलाई लामा जी के साथ भारत आये थे और हीं बस गये। इसीलिये मैक्लोड्गंज को मिनी-तिब्बत भी कहा जाता है। ये तिब्बती लोग इसे "लिटिल ल्हासा" या "धासा" कहकर पुकारते हैं। भागसू फाल से वापिस आकर हम दलाई लामा मंदिर देखनेगये। कहीं लिखा देखा शायद इसका नाम "'Tsuglagkhang Temple-सुगलगखांग टेम्पल" है। तिब्बतियों के अलावा भारतियों के बीच भी यह काफी प्रसिद्ध है। दलाई लामा मंदिर देखने के बाद हम डल लेक देखने के लिये निकल गये।

जी हॉ। एक डल लेक मैक्लोड्गंज में भी है। छोटी सी ही झील है यह और अगर आपने नैनीताल या उसके आस-पास की झीलें देखी हैं तो फिर आपको ये झील देखकर निराशा ही हाथ लगेगी। मगर झील के पीछे वाली पहाडी पर देवदार के घने पेड एक सुंदर दृश्य प्रस्तुत करते हैं। झील वाले रास्ते पर ही कुछ आगे नड्डी गॉव है जहां पर न जाने कहीं सन-सेट पाईंट है। सन-सेट पाईंट तो हमे मिला नी पर हां वहां से र्फ वाले पहाडों का दृश्यडा ही सुंदर था। पिछले कुछ वर्षो में ड्डी गॉव के आस-पास बहुत सारे बडे-2 होटल बन गये हैं।

हमनें आधे दिन में ही मैक्लोड्गंज की सारी मुख्य जगहें देख ली केवल बाजार छोड कर। अंधेरा होते-2 हम अपने होटल पहुचें और डिनर के साथ-2 कल सुबह त्रियुंड जाने की प्लानिंग करने लगे। तय किया कि सुबह सात - साढे सात बजे तक निकल लेंगे। लेकिन सुबह उठे तो सारी प्लानिंग धरी की धरी रह गयी। तेज बारिश हो रही थी। मैक्लोड्गंज में बारिश बहुत होती है। कांगडा घाटी से आने वाली हवाएसाढे चार हजार मीटर उंचे धौलाधार के पहाडों को पार नही कर पाती और संघनित होकर यहीं बरस जाती हैंऐसे में ट्रेक पर जाना नामुमकिन था। नाश्ते के बाद भी खूब देर तक होटल के रेस्तरॉ मे बैठे रहे और बरिश मे अपने आज के अरमानों को धुलते देखते रहे। करीब साढे ग्यारह बजे बरिश बंद हुई तो टहलने  निकले। बाजार अभी तक खुले नही थे। केवल कुछ दुकानें ही खुल पायी थी। अगले एक घंटे तक ऐसे ही इधर - उधर घूमते रहे। अब धूप निकल आयी थी। कल होटल वाले ने बताया था कि यहॉ धर्मशाला के पास इंद्रुनाग में पैरा-ग्लाइडिंग भी होती है। अब जब हमारे पास त्रियुंड जाने का समय तो बचा नही था तो सोचा कि चलो धर्मशाला चलते हैं वहां स्टेडियम देखेंगे और इंद्रुनाग में पैरा-ग्लाइडिंग करेंगे। 
 
मैक्लोड्गंज मे हमारे होटल के पीछे


भागसू झरना और उसकी ओर जाती पगडंडी

हालांकि यह बहुत छोटा सा झरना है मगर भीड की यहाँ कोई कमी नही रहती।

झरने के नीचे पानी के साथ-2 वाले रास्ते मे चाय की दुकान और हाँ बैठे लामा

मैडम जी! कपडे धोना और पानी को न्दा करना मना है आपको किसी ने बताया नही क्या?

विनोद भाई की करामात, सुंदर युवतियां दिखी और उसने कैमरा फोकस करा !

झरने से नीचे उतरते विनोद और चौधरी साब !

एक फोटो बढिया सा चौधरी साब का भी खींच दे भाई

विनोद भाई


ने के नीचे वाले रास्ते पर मिले कुछ कपल्स
दलाई लामा मंदिर के अंदर भगवान बुद्ध की प्रतिमा। ये चित्र मोबाइल से लिया था इसीलिए जरा अच्छा सा नी आ रा। 
इन पीपे जैसे सिलेंडरों के अंदर मणिरत्न भरे हुए हैं और ऐसी मान्यता है कि इनको घुमाने से एक लाख मंत्रों के जप के बराबर पुण्य मिलता है। यहॉ मैं और विनोद पुण्य कमा रहे हैं।

डल झील के उपर वाले पहाड पर देवदार के घने वृक्ष। इसी पहाडी के पीछे बायीओर कहीं गुना देवी का मंदिर है। मंदिर के लिये 5 किलोमीटर का ट्रैक झील के थोडा सा आगेड्डी गॉव के पास से जाता है।

  
दोपहर को हम धर्मशाला घूमने निकल गये थे। सीधे धर्मशाला स्टेडियम पहुंचे। बडा ही खूबसूरत है ये स्टेडियम। विवेक भाई छा गये इस सेल्फी में।

धर्मशाला स्टेडियम - शायद सबसे सुंदर और सबसे उंचाई पर स्थित अंर्तराष्ट्रीय  क्रिकेट स्टेडियम है।

वैसे मुझे धर्मशाला स्टेडियम थोडा छोटा लगा

है ना वाकई सुंदर !!

वो दूर पीछे वाली पहाडी पर दो मोबाइल टावर दिख रहे हैं। वो जगह इंद्रुनाग है जहाँ पैरा-ग्लाइडिंग होती है। हम लोग भी गये थे वहाँ मगर अफसोस पैरा-ग्लाइडिंग नही कर सकेट्रेनर ने कहा आज विंड स्पीड बहुत ज्यादा है आप लोग कल आना। लेकिन हमे तो कल हर हाल मे त्रियुंड ट्रैक करना है तो हमने कहा बस भाई हम ना आ रे अब कल। बस अब फिर कभी आयेंगे यहां या बिलिंग तब जरूपैरा-ग्लाइडिंग करेंगे।

शाम को धर्मशाला से वापिस आकर भाग्सू-नाग मंदिर परिसर के स्विमिंग पूल मे स्नान किया गया। कसम से बडा डा पानी था। बस नहाने के बाद चाय-मैगी का आनन्द लिया और टहलते हुए वापस होटल आ गयेसुबह अब हम लोग त्रियुंड जायेंगे। 



बडी देर से त्रियुंड-2 पढकर आप लोग पक गये होंगे मगर माफ कीजियेगा इसके बारे मे विस्तार से अगली पोस्ट मे ही बताउंगा। तब तक कृप्या लोड ना लें।


 
धर्मशाला जाते समय ये वीडियो बनाया था। 


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