गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

डोडीताल यात्रा: हरिद्वार से बेवरा चट्टी

काफी समय से सोच रहा था कि डोडीताल लेक जाया जाये। पहले ओक्टूबर में, उसके बाद नवम्बर में भी जाना नही हो पाया। फिर BCMTOURING साइट पर श्री मुकेश वर्मा जी का यात्रा वृतांत देखा। वर्मा जी पिछले साल 22 से 26 दिसम्बर तक डोडीताल ट्रैक पर गये थे। तब वहां 2-3 फीट तक ताजी बर्फ थी। उनके फोटो देखते ही तय कर लिया कि बस मुझे भी इस साल, इसी दौरान मतलब दिसम्बर के तीसरे सप्ताह में डोडीताल जाना है। 24 दिसम्बर की क्रिसमस ईव की छुट्टी थी और 25 को संडे था। बस फिर क्या था? 22-23 की छुट्टी ली ऑफिस से और फाइनल प्लानिंग शुरू हुई डोडीताल की। अनंत से डोडीताल चलने के बारे में बात की लेकिन वो अभी दो दिन पहले ही घर से एक हफ्ते की छुट्टी बिताकर लौटा था तो उसका जाना सम्भव नही हो पा रहा था। वैसे भी हम दोनो एक ही सेक्शन में हैं तो हम दोनो को एक साथ छुट्टी मिलना भी मुश्किल ही था। बस अबकि बार अकेले चलने का फैसला किया। चुंकि सर्दियों का मौसम था तो बैग भरके गर्म कपडे ले लिये और निकल लिया डोडीताल की यात्रा पर।

ग्यारह बजे ऋषिकेश पहुंचा। यहाँ रोडवेज बस अड्डे के पास ही एक प्राइवेट बस अड्डा भी है जहाँ से जीएमवीएन की बसें चलती हैं। उत्तराखंड परिवहन की उपर पहाड पर जाने वाली सभी बसें सुबह-सुबह ही निकल जाती हैं। प्राइवेट बस अड्डे पर उत्तरकाशी जाने वाली एक बस खडी थी। टिकट लिया और चढ लिया इसमे। बस सवा ग्यारह बजे ऋषिकेश से चल दी। ऋषिकेश से उत्तरकाशी 165 किमी है। उत्तराखंड की बसों में एक और रिवाज है। पहाड पर जाने वाली सभी डाक यहाँ इन बसों में डाल दी जाती हैं और कंडक्टर साब की जिम्मेदारी होती है उनको रास्ते में पडने वाले गांवों, कस्बों और शहरों में स्थित पोस्ट-ऑफिसों तक पहुंचाना जहाँ डाक विभाग का कोई कर्मचारी इन डाकों को कंडक्टर साब से ले लेता है। मतलब बेचारे कंडक्टर साब को डबल काम करना होता है - सवारियों की टिकट बनाने के साथ-साथ डाक पहुंचाने का! ऐसा शायद सिर्फ हमारे पहाड में ही मुमकिन है नही तो मैदानों में तो कंडक्टर साब एक ही काम ठीक से कर ले वो ही काफी है। खैर, ऋषिकेश से निकलते ही पहाड शुरू हो गये और लोगों को उल्टियां शुरू। मैं इससे बचने के लिए आगे वाली सीट पर ही बैठा था। उपर वाले की दुआ से मुझे पूरे रास्ते में कहीं भी उल्टी-चक्कर की दिक्कत नही हुई।

करीब डेढ बजे चम्बा पहुंचे। मैन चौराहे के पास ही चालक ने बस रोक दी - जिसको खाना खाना है, खा लो। बस यहाँ आधे-पौने घंटे के लिए रुकेगी। भूख भी जोरों की लग रही थी, एक प्लेट राजमा चावल निपटा दिये। लगभग ढाई बजे चम्बा से चले। मैन चौराहे से पुरानी टिहरी रोड पर थोडा चलते ही बांयी ओर गंगोत्री रोड के लिए मुड गये। दरअसल गंगोत्री रोड पहले इसी पुरानी टिहरी रोड से होकर ही जाती थी, लेकिन टिहरी बांध बनने से यह रोड पानी में समा गयी और उत्तरकाशी-गंगोत्री जाने के लिए ये नई रोड बनी जो थोडा घूमकर जाती है। जबकि अब पुरानी टिहरी रोड भागीरथी पुरम, डैम तक जाती है।

छाम, कंडीसौड, चिन्यालीसौड होते हुए करीब पांच बजे बस धरासू बैंड पहुंची। धरासू बैंड एक तिराहा है जहाँ से गंगोत्री और यमनोत्री का रास्ता अलग होता है। यहाँ से सीधा रास्ता उत्तरकाशी होते हुए गंगोत्री जाता है जबकि दूसरा बांयी ओर वाला रास्ता बडकोट होते हुए यमनोत्री जाता है। यहाँ भी बस 5-10 मिनट के लिए रुकी। सर्दी सी लग रही थी। एक चाय निपटा दी गयी। धरासू बैंड से उत्तरकाशी लगभग 25-26 किलोमीटर रह जाता है। करीब छह बजे उत्तरकाशी पहुंचा। अपने गाइड बलबीर पंवार को फोन किया, वो आज उत्तरकाशी में ही था। अपने गांव के प्रधान के साथ किसी मीटिंग में शामिल होने आया था। बलबीर बस अड्डे पर ही आ गया। होटल पहुंचने पर जब भयंकर ठंड लगने लगी तो समझ आया कि मैं पहाड में आ चुका हूँ। एक्स्ट्रा जैकेट पहनी और गरम लोई औढी तब जाकर ठंड कम सी हुई। रात हो चुकी थी और अब करना भी क्या था? बस डिनर किया और सो गये।

दूसरा दिन:
अगले दिन सुबह 7 बजे आंख खुली तो याद आया कि मैं तो उत्तरकाशी में हूँ। सुबह के समय भी काफी ठंड थी। और ज्यादा ठंड में मेरे नहाने का तो सवाल ही नहीं उठता। बस हाथ - मुंह धुले, नाश्ता किया और निकल लिए। उत्तरकाशी बस अड्डे से थोडा सा आगे चलते ही जीप-स्टेंड है जहाँ से मनेरी, भटवाडी, संगमचट्टी वगरह के लिए जीपें चलती हैं। हमें संगमचट्टी जाना था जहाँ से डोडीताल का ट्रैक शुरू होता है। सुबह का समय था तो संगमचट्टी जाने वाले काफी कम लोग थे - मैं, बलबीर, अ‍ग़ोडा गांव के स्कूल में पढाने वाले एक मास्टर जी। बस हम तीन ही लोग थे। जीप वाले ने बोला कि कम से कम 8-10 सवारियां होंगी तब मैं चलुंगा। करीब एक - डेढ घंटा लग गया इतनी सवारियां होने में। करीब दस बजे हम यहाँ से चले। उत्तरकाशी से संगमचट्टी 15 किलोमीटर है और पूरा रास्ता गंगोरी से अस्सीगंगा नदी के साथ-साथ जाता है। गंगोरी, उत्तरकाशी से करीब तीन किलोमीटर दूर गंगोत्री रोड पर है। अस्सीगंगा का जन्म डोडीताल लेक से ही होता है और गंगोरी में ये भागीरथी में मिल जाती है। अस्सीगंगा नदी में 2012 में बाढ आयी थी जिसके निशान नदी में आज तक दिखायी देते हैं। बडे-बडे पत्थर नदी में हर जगह बिखरे पडे थे। करीब पौने ग्यारह बजे संगमचट्टी पहुंचे। सडक बस यहीं तक आती है। इस इलाके में तीन - चार गांव हैं जिनके लिए संगमचट्टी जीप - स्टेंड का काम करता है। यहाँ दो-तीन ढाबे भी हैं। यहीं एक ढाबे पर चाय पी और अपनी डोडीताल यात्रा का पैदल सफर शुरू कर दिया।

संगमचट्टी से निकलते ही चढाई शुरू हो गयी। कच्ची मिट्टी के पहाड पर जगह - 2 भूस्खलन हो रखा था। रास्ता भी उसी के उपर से बना हुआ था। संगमचट्टी से अगोडा गांव पांच किलोमीटर है और पूरा रास्ता अस्सीगंगा के बांयी और से जाता है। मेरा गाइड बलबीर अगोडा का ही रहने वाला है। बलबीर ने निम (नेहरू पर्वतारोहण संस्थान) उत्तरकाशी से बेसिक माउंटेनियरिंग का कोर्स कर रखा है और डोडीताल- दारवापास-हनुमानचट्टी, दयारा बुग्याल के ट्रैक पर गाइड का काम करता है।

लगभग दो घंटे लगे हमें अ‍गोडा पहुंचने में। अगोडा से थोडा पहले बांयी ओर एक और गांव पडता है - भंकोली नाम है शायद। अगोडा में एक प्राइमरी स्कूल है जबकि भंकोली में इंटर कॉलिज है। इन स्कूलों में पढाने वाले ज्यादातर टीचर्स या तो गंगोरी में रहते हैं या उत्तरकाशी में। यानी हर रोज इन टीचर्स को अपने-अपने स्कूल पहुंचने के लिए काफी मशक्कत करनी पडती है। पहले 15 किलोमीटर उबड-खाबड पहाडी रास्तों पर जीप से संगमचट्टी पहुचो और फिर 5 किलोमीटर पैदल चलो तब जाकर कहीं स्कूल पहुंच पाते हैं। हिम्मत है भाई इन मास्साब की! खैर, अगोडा में हम सीधे बलबीर के घर पहुंचे। बलबीर ने पहले ही अपनी घरवाली को राजमा-भात बनाने कि लिए बोल दिया था। यहाँ पहुंचकर राजमा-भात का आनंद लिया। कुछ देर आराम किया और अपनी आज की मंजिल बेवरा चट्टी की और बढ चले।

अ‍गोडा से बेवरा दो किलोमीटर के करीब है। पूरा रास्ता उतराई वाला है। एक घंटे में ही हम लोग बेवरा चट्टी पहुंच गये। डोडीताल ट्रैक पर अगोडा के अलावा और कोई गांव नही पडता। बस दो तीन जगह कैम्पिंग साइट हैं जहाँ या तो ढाबे बने हुए हैं या फिर हट्स। बेवरा ऐसी ही एक कैम्पिंग साइट है। मैंने तो पूरी यात्रा में इसे बेवडा ही बोला! यहाँ तीन-चार ढाबे और रुकने के ठिकाने बने हुए थे, शायद गर्मियों में जब डोडीताल यात्रा का सीजन होता है तब यहाँ बहार रहती होगी। मगर अब केवल एक ही ढाबा खुला था - चाचा का ढाबा! अभी पौने तीन ही बजे थे और बेवरा में नेटवर्क नही था। घर भी फोन करके अपनी सलामती की सूचना देनी थी तो कुछ मटरगस्ती करने और घर बात करने के लिए हम उपर की ओर निकल लिये।
हरिद्वार में मेरे क़्वाटर के आंगन में खिला एक गुलाब

ऋषिकेश


उत्तरकाशी का शोक - वार्णावत पर्वत

अगली सुबह उत्तरकाशी बस अड्डे के पास

पहचान तो गये ही होगे आप

उत्तराखंड में भी जल्द ही चुनाव आने वाले हैं।
संगमचट्टी - ये जो बंदा अपनी पैंट उपर कर रहा है यही हमारा ड्राईवर था जिसने उत्तरकाशी से आते समय कम से कम 8-10 सवारियां होने पर ही चलने की बात कही थी।

डोडीताल पैदल यात्रा शुरू-अस्सीगंगा के उपर बना पुल

थोडा उपर जाने पर दिखता संगमचट्टी

भू-स्खलन और उसके उपर से जाता रास्ता। पास में ही दांयी साइड में गहरी घाटी में अस्सीगंगा बह रही है।

दूर से दिखता अगोडा गांव - अगोडा में भी फॉरेस्ट विभाग वालों एक रेस्ट हाउस है।

ये बोर्ड देखकर पता चला कि अगोडा से भी कोई रास्ता हनुमान चट्टी के लिए जाता है। हनुमान चट्टी यमुना घाटी में है।

बेवडा में एक छोटी सी नदी के पुल पर

बेवडा से दूरियां

बेवडा!!

बहुत खलबली मचा रहा था, आंटी जी ने पकड लिया।


घर पर सूचना दी जा रही है कि सही सलामत हूँ।
ढाबे पर कुछ विचार-विमर्श में - चाचा, बलबीर और डोडीताल स्थित फॉरेस्ट रेस्ट हाउस का चौकीदार मनी। चूल्हे पर दाल पक रही है। चाचा ने डिनर में आलू राई की सब्जी और दाल बनायी थी।
अगले भाग में जारी......

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बुधवार, 23 नवंबर 2016

हरिद्वार भ्रमण -1: बिल्केश्वर महादेव, चीला, राजाजी नेशनल पार्क और विंध्यवासिनी मंदिर

20 नवम्बर 2016, दिन - रविवार
अभी - 2 हरिद्वार भ्रमण करके लौटा हूँ। थोड़ा अच्छा सा फील हो रहा है। बहुत दिन हो गये थे घर से निकले हुए। पहले प्लान किया था कि दशहरे के टाइम पर डोडीताल जाऊँगा, वो फेल हुआ। फिर प्लान किया कि दिवाली के बाद घर से आकर 13-14 नवम्बर के आस-पास मध्यमहेश्वर जाऊँगा। मगर पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते वहां भी नहीं जा पाया। उपर से मेरे पास छुट्टियाँ भी नही बची हैं, नही तो आज भी मध्यमहेश्वर निकला जा सकता था। मदे बाबा के कपाट अभी 22 को बंद होंगे। इस साल तो अब बस मध्यमहेश्वर रह गया, लेकिन फिर कभी जरूर जाऊँगा। खैर, अब बात करते हैं आज की ! तो जी हुआ यूँ कि मै अपने रूम पर पडा था और बोर हो रहा था। सुबह तक कही जाने का भी कोई प्लान नही था। बस अचानक अनंत की याद आयी और उसे फोन मिला दिया।
" अनंत यार कहीं घूमने चलते हैं"
"कहाँ चलना है सर?"
मेरे दिमाग में एकदम से आया, "बिल्केश्वर महादेव होते हुए विंध्यवासिनी मंदिर चलते हैं।"
"ठीक है सर मैं साढे बारह बजे तक आपके रूम पर आता हूँ।" अनंत ने कहा
 
विंध्यवासिनी मंदिर हम लोग पिछले साल भी इन्ही दिनों में गये थे। ये मन्दिर हरिद्वार से करीब 15-20 किलोमीटर दूर राजाजी राष्ट्रीय पार्क के चीला रेंज के जंगलों में एक छोटी सी पहाडी पर स्थित है। छोटा सा मंदिर है, मगर ये जगह बहुत ही सुंदर और एकदम शांत है। विंध्यवासिनी मंदिर, पौडी - गढवाल जिले के यमकेश्वर ब्लॉक के अंतर्गत आता है। अर्थात एक तरह से आज हम लोग पौडी - गढवाल जिले में भी घूम आये।
 
अनंत पौने एक बजे मेरे पास आया और हम लोग अपने आज के हरिद्वार भ्रमण पर निकल लिए। रानीपुर मोड से पहले ही जो रास्ता हरिद्वार बाईपास की तरफ जाता है, हम उसी पर हो लिए। हरिद्वार बाईपास रानीपुर मोड के पास से पहाडी के सहारे रेल्वे लाइन के बांयी ओर से होकर मंसा देवी के पैदल रास्ते के पास से होता हुआ भूपतवाला तक जाता है। इसे खड्खडी बाईपास के नाम से भी जाना जाता है। इसी बाईपास पर 4-5 किलोमीटर चलने के बाद बांयी ओर ही पहाडी के नीचे बिल्केश्वर महादेव मंदिर है। जैसे कि भारत के हर मंदिर से कोई ना कोई मान्यता जुडी होती है, वैसे ही इस मंदिर से भी जुडी है। कहते हैं कि यहाँ माता पार्वती ने भगवान शंकर को पति के रूप में पाने के लिए तप किया था। वैसे मुझे तो ऐसा कुछ नही लगा यहाँ!
 
रानीपुर मोड से मन्सा देवी मंदिर की ओर जाता हरिद्वार बाईपास
 

भक्त अ‍नंत !!
भोलेबाबा के दर्शन करके हम लोग सीधे भीमगोडा बैराज पहुँचे। यहीं से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की खुशहाली अर्थात गंग-नहर निकलती है। हरिद्वार की जगत-प्रसिद्ध हर की पौडी भी इसी गंग नहर पर बनी है। भीमगोडा बैराज से निकलकर गंगनहर मुजफ्फरनगर, मेरठ, गाजियाबाद, बुलंद्शहर होते हुए अलीगढ़ में स्थित नानु तक जाती है जहां से यह कानपुर और इटावा में शाखाओं में बंट जाती है। भीमगोडा बैराज से आगे जाने वाली गंगा की धारा को हरिद्वार में नीलधारा के नाम से जाना जाता है। इस बैराज का नियंत्रण अभी भी उत्तर प्रदेश सिचाई विभाग के पास है। कुछ देर यहाँ रुककर हम लोग चीला के लिए निकल गये।
भीमगोडा बैराज से निकलती पश्चिमी उत्तर प्रदेश की खुशहाली - गंग नहर

बैराज के पास - पीछे नीलधारा अर्थात गंगाजी और उत्तर प्रदेश सिचाई विभाग का गेस्ट हाउस
भीमगोडा बैराज की टेक्निकल जानकारी
बैराज से निकलते ही जंगल शुरु हो गया और हम राजाजी नेशनल पार्क के चीला रेंज में घुस गये। राजाजी को सन्‌ 1983 में नेशनल पार्क घोषित किया गया था, एवम्‌ इसका कुल इलाका 120 वर्ग किलोमीटर के आस-पास है। यह जानकारी मुझे एक जगह सूचना बोर्ड पर लिखी मिली। आजकल पार्क पर्यटकों के लिये खुला हुआ है तो यहाँ काफी चहल-पहल थी। चीला में ही गढ़वाल मंडल विकास निगम वालो का एक पर्यटक आवासगृह भी बना हुआ है। यहाँ हमें ना ही रुकना था और न ही हम रुके। चीला में उत्तराखंड जल विद्युत निगम का 144 मेगावाट का एक पावर हाउस है। ये पावर हाउस ऋषिकेश के वीरभद्र बैराज से आने वाली एक नहर पर बना है। हम रुके कुछ देर के लिए इसी चीला जल विद्युत गृह के पास। कुछ फोटो खींचे और आगे बढ गये। यही रोड आगे ऋषीकेश तक जाता है, अच्छा बना हुआ रोड है और इस पर ट्रेफिक भी नही होता। पावर हाउस से आगे रास्ता नहर के साथ-2 ही है।
 
करीब 5-6 किलोमीटर चलने पर नहर पार करके गंगा-भोगपुर गांव आता है। यहीं से एक कच्चा और पथरीला रास्ता जंगल के अंदर से होता हुआ विंध्यवासिनी मंदिर तक जाता है। पूरे रास्ते पर जंगली जानवरों के मिलने का खतरा बना रहता है। यहाँ रेत और छोटी बजरी का अवैध खनन भी बहुत होता है। आगे जाने पर एक दो छोटी -2 बरसाती नदियां मिली। इनमे पानी कम था, मगर इसकी स्पीड काफी थी। एक दो जगह मुझे बाइक से उतरना भी पडा। किसी तरह से रेत, बजरी के रास्तों और बरसाती नदियों से निकलते हुए हम लोग 2 बजे तक विंध्यवासिनी मंदिर पहुँचे। दर्शन किए, प्रसाद खाया और नीचे मंदिर के पास ही बनी एक दुकान पर चाय की चुश्कियां लेने पहुँच गये। मैंने अंदाज लगाया कि यहाँ से झिलमल गुफा और नीलकण्ठ महादेव ज्यादा दूर नही होने चाहिये और वापस घर आकर गूगल मैप पर चेक किया तो झिलमिल गुफा तो पास में ही निकली। मंदिर के नीचे बनी दुकान पर चाय पीकर और कुछ देर रुककर हम लोग वापस लौट आये। अबकि बार जब भी विंध्यवासिनी मंदिर जाऊँगा तो झिलमिल गुफा जरूर देखूँगा। कहते हैं वहां कोई पहुँचे हुए बाबा रहते हैं।
 
चीला पावर हाउस

सामने के किनारे पर चीला जल विद्युत गृह लिखा हुआ है।

पौडी गढवाल जिला
गंगाभोगपुर खनन क्षेत्र
 
एक जलधारा को पार करता हुआ अनंत - यहाँ कोई रास्ता भी नही बना है।


 

विंध्यवासिनी मंदिर के पास जूते निकालकर पानी में चलने का आनंद उठाता अनंत

मंदिर की ओर जाती सीढियां

विंध्यवासिनी मंदिर के पास

उदासीन अखाडा - कुश्ती वाला अखाडा नही बाबा लोगों वाला
 

वो उधर, उस पहाडी के पीछे नीलकण्ठ महादेव होना चाहिये, यही कहा था मैंने अनंत को। और वाकई नीलकण्ठ उधर ही है


विंध्यवासिनी मंदिर से वापस आते समय हम लोग कुछ देर चीला में रुके थे। यहाँ राजाजी नेशनल पार्क का एक गेट बना हुआ है। और यहीं जंगल सफारी करायी जाती है। नीचे पेश हैं यही गेट और इसके आस-पास के कुछ फोटोज:-
राजाजी नेशनल पार्क में जंगल सफारी करा पर्यटकों को लेकर लौटती एक जीप

25 अप्रैल 2015 को राजाजी नेशनल पार्क को टाइगर रिजर्व घोषित कर दिया गया है। 




 आपने इसे पढा, आपका बहुत - बहुत धन्यवाद। कृप्या अब इसे शेयर करें।

सोमवार, 26 सितंबर 2016

श्रीखंड महादेव: वापसी की यात्रा

इस यात्रा वृतांत को शुरू से पढने के लिये यहाँ क्लिक करें।
29 जुलाई, दिन शुक्रवार।
हमारी श्रीखंड यात्रा का आज पांचवा दिन था। कल मैंने श्रीखण्ड बाबा के दर्शन किए थे। और आज हमें अपनी वापसी की यात्रा शुरू करनी थी। आराम से साढे छह बजे सोकर उठे। नित्य कर्म से फारिग होकर चाय मैगी खायी और टेंटवाले का हिसाब करके चल पडे। भीमद्वार में हम लोग तीन दिन रुके थे। तीन लोगो के 350 रुपये प्रतिदिन पर-आदमी के हिसाब से 3000 रुपये बने। आज हम बहुत खुश थे, आंखिर यात्रा सफलतापूर्वक पूरी करके जा रहे थे ! दोनो में से किसी को भी कोई खास परेशानी नही हुई थी। मेरी थकान भी रात आराम करने से खत्म हो गयी थी और अनंत तो यहाँ कल से ही आराम फरमा रहा है। करीब सवा सात बजे हम लोग भीमद्वार से निकले। तय किया कि आज ही जांव तक वापस पहुँचेंगे। आज हमे ज्यादातर जगहों पर उतराई वाले रास्तों पर ही चलना है, बस कहीं-2 पर ही थोडी बहुत चढाई है। शाम - अंधेरा होने तक जांव पहुंच ही जायेंगे।
भीमद्वार में सुबह हमारे टेंट का अंतिम फोटो
आज मौसम साफ था, धूंप निकली हुई थी। करीब दो किलोमीटर चलने पर वो दोनो गुजराती बंदे मिले जो कल मेरे साथ दर्शन के लिए गये थे। वो लोग भी कल शाम को अंधेरा होने तक भीमद्वार ही आ गये थे। उन गुजरातियों का तीसरा, वो मोटा साथी कल ही यहाँ से भी निकल लिया था और आज इन लोगो को थाचडू में मिलेगा। बस, अब तो हम तीन से पांच हो गये ! साथ-साथ ही चलते रहे। कुंसा पहुंचकर फिर से सूप का ऑर्डर दे दिया गया।  यहाँ आज भी भेड़ें उपर के पहाड वाले घास के मैदान में विचरण कर रही थी। यहाँ कुंसा में ही इन भेड़ों के मालिक "गद्दियों" के ठिकाने भी बने थे। पूरे हिमाचल के ऊँचे से ऊँचे घास के मैदानों पर इन्ही गद्दियों का राज है। बर्फबारी के समय में ये लोग नीचे कम ऊंचाई वाले स्थानों पर चले जाते हैं और गर्मियों में जब बर्फ पिंघलती है तो ये फिर से इन ऊंचे इलाकों में आ पहुंचते हैं। यहाँ भी जब नवम्बर-दिसम्बर में बर्फ पड जायेगी तब ये लोग नीचे वाले स्थानों पर चले जायेंगे और मई - जून में फिर यहाँ आ जमेंगे। असल में ये गद्दी ही हिंदुस्तान के सबसे बडे घुमक्कड हैं। खैर, करीब बीस मिनट कुंसा में रूककर और सूप निपटाकर हम चल दिये।

दयाल चाइनीज कॉर्नर - यहाँ सूप बडा मस्त बना था। आते और जाते समय दोनो बार यहाँ सूप पिया गया।
करीब सवा दस बजे हम लोग भीमतलई पहुँचे। यहाँ हमने चाय पी और अनंत व गंगाराम ने परांठे भी खाये। मुझे पहाड पर यात्रा करते समय भूख कम ही लगती है और वैसे भी हमने अभी करीब एक घंटा पहले एक कटोरा भर के सूप पिया ही था। अब बस थाचडू में लंच ही करूंगा। भीमतलई में हम लगभग आधा घंटा रूके। यहाँ से निकले तो सामने वो कालीघाटी की जबरदस्त चढाई मुँह उठाये खडी थी जिसको हमने तीन दिन पहले उतरा था। यहीं पर वो पार्वती बाग वाले अंकल जी मिल गये जिन्होने मुझे दर्शन के लिए जाने के लिए प्रेरित किया था। वो कल सबेरे के पार्वती बाग से चले हुए थे और आज शाम तक किसी तरह थाचडू पहुँचेगे। अंकल जी ने जब पूछा कि दर्शन किए क्या तो उनको बडी खुशी से बताया कि हम सभी दर्शन करके ही आये हैं। अंकल जी को आंखिरी राम-राम करके हम लोग आगे निकल गये। भगवान करे इन घुमक्कड अंकल जी से फिर से मिलना हो ! ले -दे कर किसी तरह से कालीघाटी की चढाई पूरी की। अब तो बस सिंहगाढ तक पूरी उतराई ही उतराई है - डंडाधार की उतराई जो आते समय भयानक चढाई थी।
 
दो बजे थे जब हम थाचडू पहुँचे। यहाँ हमे हरियाणा वाले वो बंदे भी मिल गये जो कल मेरे साथ श्रीखंड गये थे। वे यहाँ लंच कर रहे थे। राजमा चावल बने थे,बस हम भी टूट पडे। थाचडू में ही गुजरातियों का वो तीसरा साथी भी मिल गया जो पार्वती बाग से वापस आ गया था। खा-पीकर और आधा घंटा अराम करके निकल थाचडू से चल दिये। डंडाधार की इस चढाई ने जितना आते समय परेशान किया था उतना ही ये अब उतरते समय भी परेशान कर रही थी। पिछले दो-तीन दिनों में बारिश होने की वजह से रास्ते में कीचड भी हो गया था। इसलिए हम लोग धीरे-धीरे ही चल रहे थे। थाटीबील से करीब एक किलोमीटर आगे से मेरे घुटने में दर्द होने लगा था। जिस वजह से मुझे अब उतरने में और भी परेशानी हो रही थी। एक ही पैर के सहारे उतरना पड रहा था। उधर अनंत के पैर में छाला पड गया था तो थाचडू से पूरे रास्ते वो नंगे पैर ही चल रहा था।
 
बराठी नाले तक आंखरी आधा किलोमीटर में मुझे काफी दिक्कत हुई और मैं सबसे पीछे रह गया। बस गुजराती भाई, मेहुल जी ही मेरे साथ थे। उनको भी घुटने में दिक्कत हो रही थी। खैर धीरे-धीरे उतरते हुए हम दोनो भी किसी तरह बराठी नाले पर पहुँच ही गये। यहाँ हरिद्वार वाले एक बाबा का छोटा सा आऋम है। यहाँ सब लोग बैठे मिल गये - हमारे साथ वाले भी और हरियाणा वाले भी। यहाँ चाय और शक्कर पारे खाने को मिले। मजा आ गया। करीब सवा पाँच बजे थे जब हम यहाँ से निकले। अब बस सिंहगाढ तक की थोडी से मेहनत बची थी। सिंहगाढ-बराठे नाले का ये ढाई किलोमीटर का सफर पूरी श्रीखंड यात्रा का सार है। बस कैडा-सा जी करके पार कर दिया ये सफर भी।
 
सवा छह बजे तक सिंहगाढ पहुंचे तो प्रशासन वाले मिले जिन्होने रजिस्ट्रेशन किया था। पूछने लगे कि अभी और भी लोग बचे हैं क्या? हमने कहा एक अंकल जी तो बचे हैं जो कल तक आयेंगे बाकी का हमें पता नी। यहाँ से अब जांव पहुँचने में हमें कोई दिक्कत नही थी। सीधा-सीधा रास्ता जो था जांव तक। फिर भी हमें जांव पहुँचते-पहुँचते अंधेरा हो गया। गंगाराम हमारे साथ जांव तक आया। यहाँ से अब वो पैदल पाँच किलोमीटर दूर अपने गांव जायेगा। हमसे बिछुडते वक्त हमें गंगाराम के चेहरे पर कुछ करुणा के भाव भी दिखे। आंखिर पिछले पांच दिनो में अपनी दोस्ती जो हो गयी थी। गंगाराम को विदा करके हमने आज यहीं जांव में ही रूकने का फैसला किया। हाँलाकि अभी केवल आठ ही बजे थे और हम अभी भी बागीपुल पहुँच सकते थे। मगर आज 25 किलोमीटर पैदल चले थे। शरीर में दम बिल्कुल नही था कुछ भी करने का। यहीं जांव में ही जहाँ बाइक खडी की थी उसी होटल में एक कमरा लिया। डिनर किया और बस पड के सो गये।
 
अगले दिन सुबह आठ बज गये थे जब हम जांव से चले। अरे हाँ, याद आया बागीपुल में तो फौजी अंकल के यहाँ हमारा बाकी का सामान भी रखा है। बागीपुल से बाकी का सामान उठाया और निकल लिए वापस। हमारी वापसी की यात्रा में पूरे रास्ते बारिश होती रही और हम दो दिन में हरिद्वार पहुंचे। हमारी श्रीखंड यात्रा बिना किसी खास समस्या के पूरी हो गयी थी। वापसी में पूरे रास्ते एक ही बात दोहराते आए कि अब दो-चार महीने तक कोई ट्रेकिंग कोई यात्रा नही की जायेगी। मगर जैसे ही एक आध महीना बीतेगा तो घुमक्कडी का कीडा फिर से जोर मारेगा और शायद फिर हम कहीं निकल लें।
 
बम शंकर - हर हर महादेव
 


 
 
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