शुक्रवार, 22 जून 2018

पिंडारी ग्लेशियर यात्रा: फुरकिया से पिंडारी ग्लेशियर और वापस खाती गांव

15 मई 2018, मंगलवार
इस यात्रा वृतांत को शुरुआत से पढनें के लिए यहाँ क्लिक करें।
आज हमारी पिंडारी यात्रा का चौथा दिन था और हम समुद्रतल से करीब 3200 मीटर की ऊंचाई पर पिंडारी ग्लेशियर मार्ग के अंतिम पडाव फुरकिया में थे। हमारे यात्रा प्लान के हिसाब से आज हमें आठ किमी दूर पिंडारी ग्लेशियर देखकर आना था और वापस द्वाली तक पहुंचना था। फिर कल द्वाली से कफनी ग्लेशियर देखकर वापस खाती जाना था। मगर कल जब हम द्वाली में लंच कर रहे थे तो ढाबे वाले से कफनी ग्लेशियर मार्ग के बारे में हुई बातचीत को सुनकर मोनू ने कफनी जाने के लिए मना कर दिया। मैने दो-चार बार बोला भी कि कोई नी भाई, अगर रास्ता ज्यादा खराब है तो द्वाली से एक बंदे को साथ ले चलेंगे। दो सौ - तीन सौ जो भी वो लेगा, दे देंगे। अब इतनी दूर आये हैं तो दोनों ग्लेशियर देखेंगे। सुना है कि कफनी ग्लेशियर के बिल्कुल करीब तक जा सकते हैं और उसे हाथ से छूकर ठोस बर्फ का अनुभव कर सकते हैं। सो मेरी पूरी इच्छा थी कफनी जाने की। मगर मोनू नही माना और आंखिरकार तय हुआ कि बस पिंडारी देखकर ही चलते हैं। हम लोग सुबह साढे पांच बजे सोकर उठे। वैसे तो हमने कल ढाबे वाले को बोला था कि हमें सुबह सवा चार - साढे चार बजे तक जगा देना। मगर वो पट्ठा आया ही नही उस टाइम जगाने - आया भी तो साढे पांच बजे, जब हम खुद ही उठ गये थे। शायद वो कल वाले बंगाली ग्रुप का नाश्ता बनाने में व्यस्त हो गया था। जब हम उठे तो बंगाली चाय - नाश्ता कर रहे थे। मैंने ढाबे वाले को हमारे लिए भी चाय मैगी बनाने के लिए बोल दिया। 

फ्रैश होकर, चाय - मैगी निपटाकर हम लोग ग्लेशियर के लिए निकल चले। एक बैग में दोनों के रेनकोट रखे और बाकी का सामान दूसरे बैग रखा। समान वाला बैग यहीं ढाबे पर ही छोड दिया। मैंने अपना कैमरा लिया और मोनू ने रेनकोट वाला बैग। बंगाली लोग हमसे करीब चालीस मिनट पहले निकल गये थे। हमसे आगे पुणे से आये बच्चों एक ग्रुप और था। इस ग्रुप में करीब तीस - चालीस बच्चे थे, जो अल्मोडा की किसी एजेंसी के साथ आये थे और कल फुरकिया से चार किमी आगे अपने टेंट्स में रुके थे। फुरकिया से आगे आधे किमी की थोडी ठीक-ठाक सी चढाई के बाद रास्ता मामूली चढाई वाला है। जंगल भी फुरकिया से पहले ही खत्म हो जाता है, आगे सिर्फ हरी घास और बुरांश की खूबसूरती ही साथ देती है। अक्सर बुरांश मार्च - अप्रैल में खिलता है और सुर्ख लाल रंग का होता है। मगर यहाँ बुरांश अभी भी खिल रहा था और इसका रंग भी हल्का गुलाबी  था। करीब तीन किमी चलने के बाद बंगाली अंकल और उनका पोर्टर दिखायी पडे। थोडा और आगे जहाँ पुणे से आये बच्चों के टेंट्स लगे थे, वहांं हमनें अंकल जी को पीछे छोड दिया। बाकी के दोनों बंगाली बंदे करीब एक किमी और आगे थे। उन्हेंं हम लोग पिंडारी बाबा की कुटिया तक ही पकड सके। इधर पुणे वाले बच्चों के टेंट ट्रैक से करीब दो सौ मीटर नीचे पिंडर किनारे लगे हुए थे। वो लोग अभी तक ग्लेशियर जाने के लिए निकले नही थे। अब इतना बडा ग्रुप हो और वो भी बच्चों का तो देर तो होनी ही है। इनमें से ज्यादातर बच्चे महंगे कॉनवेंट स्कूलों में पढने वाले थे। बाद में जब हम ग्लेशियर देखकर लौट रहे थे तब पिंडारी बाबा की कुटिया से आगे ये लोग हमें मिले तो इनके संचालक ने बताया कि ये लोग पिछले 4-5 दिन से इधर हैं। ग्रुप में कुछ बच्चे बहुत पैसे वाले है। सो बहुत जिद्दी भी हैं और चलना पसंद नही करते। 1-2 बच्चों को सर्दी - खांसी की समस्या है तो उनको भी आराम कराना पड रहा है। बेचारा संचालक किसी तरह से इनको मैनेज कर रहा है।

थोडा आगे जाने पर एक झरना मिला। इसमेंं बर्फ जमी पडी थी। पाँच -सात दिन पहले जब उत्तराखंड में मौसम खराब हुआ था तो इधर जमकर बर्फबारी हुई थी। फुरकिया में भी करीब डेढ फीट बर्फ पडी थी। रास्ते और बाकी जगह की बर्फ तो पिंघल गई मगर झरने के रास्ते वाली बर्फ थोडा गहराई में होने की वजह से अभी नही पिंघली थी। यहाँ दो - चार फोटो खींचे और आगे निकल चले। सवा आठ बजे के करीब पिंडारी बाबा की कुटिया पर पहुंचे। यहाँ उडीसा के रहने वाले बाबा धर्मानंद जी पिछले अ‍ट्ठाईस सालों से रह रहे हैं। बाबा पिछले 4-5 दिनों से नीचे किसी काम से गये हुए थे तो कुटिया बंद थी। यहाँ थोडी देर आराम करने के लिए बैठ गये। साथ लायी नमकीन और एक बिस्किट का पैकेट निपटा डाला। जीरो पॉइंट यहाँ से करीब एक किमी दूर है। कहते हैं कभी पिंडारी ग्लेशियर बाबा की कुटिया के पास तक हुआ करता था। मगर आज कई किमी पीछे खिसककर सिर्फ पहाड पर टंगा हुआ सा दिखाई देता है। और इसके दर्शन दूर से ही कर सकते हैं। कुटिया पर थोडी देर आराम करके हम लोग ज़ीरो पॉइंट की ओर निकल लिए। यहाँ से आगे एक बरसाती नदी थी जिसको पार करके हमें सामने वाले पहाड के समानांतर जाना था। कहाँ तक? जहाँ तक जा सकते थे। नदी में पानी नही था, शायद छांगुंच पर्वत की थोडी बहुत बर्फ पिंघलकर इसमें आती होगी। यहाँ चारोंं ओर का दृश्य बहुत ही शानदार है। तीन ओर बर्फ से ढंकी चोटियांं हैं। जो पूर्व से पश्चिम की ओर क्रमशः नंदाकोट, छांगुच, नंदाखाट, पंवालीद्वार और बल्जोरी हैं। इन्ही में से छांगुच और नंदाखाट के बीच फैला है पिंडारी ग्लेशियर।

बिन पानी की नदी को पार करके हम सामने वाले पहाड पर बने रास्ते पर चलने लगे। पिंडर इस पहाड के दूसरी ओर बहुत गहराई में बह रही थी। थोडा आगे जाने पर पिंडारी ज़ीरो पॉइंट का बोर्ड लगा मिला जो कि बहुत मुश्किल से पढने में आ रहा था। न जाने कितने साल पहले इस बोर्ड पर ये लिखा गया होगा और न जाने कब से ये जंग खा खाकर इस हालत में है कि पढा नही जा सकता। मगर आज तक किसी सरकारी विभाग ने इसे दोबारा लिखने की जरुरत नही समझी। हाँलाकि इसको पढने लायक बनाना बहुत जरूरी है क्योंकि ये यहाँ से आगे जाने वालों को सावधान करता है। अक्सर ज़ीरो पॉइंट का ये मतलब समझा जाता है कि बस अब रास्ता खत्म और ठोस बर्फ यानि ग्लेशियर शुरु। मगर यहाँ ऐसा नही है ग्लेशियर तो अभी बहुत दूर है। ज़ीरो पॉइंट से आगे भी रास्ता जा रहा था। मगर हम करीब 200 मीटर ही आगे तक गये होंगे कि एक दिल दहला देने वाला दृश्य दिखा। हम बिल्कुल पहाड की किनारी पर थे। उस ओर आगे व  पीछे जबरदस्त भूस्खलन हो रखा था, और इस भूस्खलन के नीचे बह रही थी पिंडर! यहाँ से आगे जा सकना मुश्किल और जानलेवा दोनो था, सो हम यहीं ठहर गये। ये पूरा इलाका एक महान भूस्खलन क्षेत्र है। हम समुद्रतल से करीब 3670 मीटर की ऊंचाई पर होंगे। सामने छांगुच और नंदाखाट के बीच में टंगा पिंडारी ग्लेशियर साफ दिखायी पड रहा था। ग्लेशियर के नीचे का हिस्सा कुछ काला दिखाई दे रहा था। यहाँ हमनेंं थोडी देर रुककर कुछ फोटों ली। यहाँ से नंदाकोट, छांगुच, नंदाखाट, पंवालीद्वार और बल्जोरी के बडे भव्य दर्शन हो रहे थे। पिंडारी ग्लेशियर के ऊपर करीब 5312 मीटर ऊंचाई पर कुमाऊँ के पहले कमिश्नर जॉर्ज विलियम ट्रेल के नाम पर प्रसिद्ध "ट्रेल पास" है, जो पिंडारी ग्लेशियर को जोहार के मिलम घाटी से जोडता है। ट्रेल पास उत्तराखंड के कठिनतम दर्रों में से एक है। इस दर्रे को पार करने के लिए पर्वतारोही पिंडारी ज़ीरो पॉइंट के आसपास अपना बेस कैम्प बनाते हैं और यहाँ से आगे तख्ता कैम्प के बाद एडवांस कैम्प लगाकर दर्रा पार करते हैं। ट्रेल पास के बाद तीखा ढलान है, जिसमें लगभग दो सौ मीटर रोप से उतरकर नंदा देवी ईस्ट ग्लेशियर पहुंचते हैं। आगे फिर ल्वाँ ग्लेशियर पार करके ल्वाँ गाँव, मार्तोली, बोगड्यार होते हुए मुनस्यारी पहुंचा जाता है। 

नौ बजे के करीब हम यहाँ से चल दिये। "सुखी नदी" से पहले ही हमें बंगाली अंकल और उनका ग्रुप मिला, जबकि नदी पर पुणे वाले बच्चे मिले। बाबा की कुटिया पर पहुंचकर थोडी सांस ली। यहाँ कुछ खच्चर वाले बाबा का राशन पानी लेकर आये हुए थे। इनसे बाबा के बारे में पूछा तो पता चला बाबा इस ओर ही आ रहे हैं। कल वो द्वाली में रुके थे। हम बाबा से मिलना तो चाहते थे लेकिन यहाँ ज्यादा देर रुककर इंतजार करना भी हमें ठीक नही लगा। बाबा से रास्ते में ही मिल लेंगे, ऐसा सोचकर अपना रेनकोट वाला बैग उठाया और यहाँ से नीचे की ओर निकल चले। मगर हम मुश्किल से पचास मीटर ही गये थे कि सामने से बाबा आते दिखायी दिये। पास पहुंचकर बाबा को प्रणाम किया। बातें हुईं तो बाबा ने बताया कि वो नीचे कपकोट में किसी एन.जी.ओ. की मीटिंग में गये थे। उनके सहयोग़ से वो पिंडर घाटी में बसे इन सुदूर गांवोंं में डॉक्टरों की तैनाती को लेकर प्रयासरत हैं। बाबा यहाँ के आसपास के गांववालों के मुद्दोंं को प्रशासन के समक्ष उठाते रहते हैं, जिससे इस इलाके के लोग बाबा की काफी इज्जत करते हैं और उन्हे "पिंडारी बाबा" की संज्ञा दी हुई है। बाबा के काफी आग्रह पर हम लोग उनकी कुटिया पर वापस आ गये। यहाँ आने वाले हर एक पर्यटक की तरह बाबा ने हमें भी बिना चाय पिये नही जाने दिया। चाय पीकर बाबा से विदा ली ओर नीचे फुरकिया की तरफ दौड लगा दी। आज अगर मौसम सही रहा तो खाती के उसी गेस्ट हाउस में रुकना है जिसमेंं हम परसों रुके थे। यहाँ से हमारे साथ -2 बधियाकोट गांव के रहने वाले एक शख्श चल रहे थे, उनका नाम भूल गया हूँ। वो यहाँ पीडब्लूडी विभाग के ठेकेदार के अंतर्गत मजदूरी का कार्य करते हैं। पिंडारी बाबा की कुटिया के नीचे जहाँ हमें बाबा आते हुए मिले थे, वहां एक यात्री शेड बन रहा है। ये सज्जन यहाँ से एक लोहे का भारी भरकम एंगल कंधे पर लाधकर नीचे फुरकिया में बन रहे यात्री शेड पर ले जा रहे हैं। हम लोग साथ-2 चल रहे थे तो बातें होना स्वाभाविक था। पेश है उसी बातचीत के कुछ अंश... 
मैंने इन सज्जन से पूछा, "यहाँ काम करके कितना कमा लेते हो भाई जी?" 
"भाजी सात - आठ हजार के करीब कमा लेता हूँ महीने के, कभी कभार किसी पर्यटक के साथ चला जाता हूँ तो वहां से भी कुछ मिल जाता है।" 
"हर रोज घर से ही आना - जाना करते हो क्या? कभी मैदान में गये हो?"
"नही भाजी, हफ्ते में एक बार चला जाता हूँ घर का राशन-पानी लेकर। हाँ, एक -डेढ साल तक हल्द्वानी में था, लेकिन मैदान में रहने खाने का बहुत खर्चा हो जाता है इसलिए वापस इधर ही आ गया।"
मैंने खाती गांव के काली मंदिर के बारे में पूछा तो इन भाई जी ने बताया कि पूरे क्षेत्र में काली माता की बहुत मान्यता है। नवरातों के समय मे यहाँ प्रमुख धार्मिक आयोजन होता है जिसमेंं सब आस-पास के गांवों के लोग इकट्ठा होते हैं। मैंने फिर पूछा यहाँ बलि-प्रथा अभी भी है क्या? तो भाजी अटकते हुए से बोले कि अब नही है, पहले तो बहुत बलि दी जाती थी। फिर धीमीं सी आवाज में बोले, "हाँ, अभी भी साल में एक बार बलि दी जाती है।" मैं जानता था कि पहाडों में कहीं - कहीं अभी भी ये प्रथा है इसलिए मैंने जानबूझकर इन भाजी से ये बात कंफर्म करने के लिए पूछी थी। हाँलाकि मैं बलि प्रथा का विरोधी हूँ, मगर फिर भी मैंने भाजी से इस बारे में कुछ नही कहा। ऐसे ही बाते करते हुए अपनी फुल स्पीड पर चलते हुए हम लोग करीब सवा घंटे में ही फुरकिया पहुंच गये।

फुरकिया में आज हमें वो बंगालियों का ग्रुप मिला जो परसों खाती में मिला था। ये लोग आज यहाँ पहुंचे हैं और हम अब नीचे जाने वाले हैं। फुरकिया में हमने कुछ नही खाया। बस अपना सामान वाला बैग उठाया, थोडी देर आराम किया और ढाबे वाले का हिसाब करके द्वाली के लिए निकल गये। 

दो बजे थे जब हम द्वाली पहुंचे। यहाँ भी बस दस-पन्द्रह मिनट आराम करके हम खाती के लिए निकल लिए। अब हमारी रफ्तार थोडी धीमी हो गयी थी। सुबह से करीब 21 किमी चल चुके थे जबकि अभी लगभग 12 किमी और चलना था। पाँच बजे के करीब झरनें के पास वाली उसी खडक सिंह की दुकान पर पहुँचे जहाँ परसों खाती से खरकिया जाते समय रुककर चाय पी थी। यहाँ खडक सिंह जी हमें हमारा इंतजार करते मिले। दरअसल बाबा कि कुटिया से जो खच्चर वाले आये थे उन्होनें ही खडक सिंह जी को बताया कि पीछे दो पागल आ रहे हैं जो आज ही खाती पहुंचेगे। इसलिए खडक सिंह जी हमारा इंतजार कर रहे थे। यहाँ थोडा आराम किया, चाय पी और एक-एक नमकीन का 10 रुपये वाला पैकेट खाया। करीब आधे घंटे बाद खडक सिंह जी अपना आज का काम खत्म कर हमारे साथ यहाँ से निकल लिये। मेरे कई बार मना करने पर भी खडक सिंह जी ने मेरा बैग ले लिया और यहाँ से खाती तक वो हमारे साथ-साथ ही चले। थोडी देर में निगलाधार वाले पुल के पास पहुंचे तो खडक सिंह जी ने आदेश दिया कि शॉर्टकट वाले रास्ते से ही चलना है, सीधा निकलो। यहाँ एक शिकारी भी मिले जो अपनी दुनाली लिए किसी जंगली जानवर की तलाश में आज सुबह से ही इधर जमेंं हुए थे मगर उन्हे कुछ हाथ नही लगा। सात बजे के करीब हमने खाती में प्रवेश किया। जहाँ काली मंदिर जाने वाली सीढियां शुरु होती हैं, उससे पहले ही दाहिने हाथ की ओर खडक सिंह जी का घर था। खडक सिंह जी को अलविदा कह कर हम अंधेरा होने से पहले ही पीडब्लूडी के डाकबंगले पर पहुंच गये।
फुरकिया से  चलने के बाद सबसे पहले नंदाखाट के दर्शन होते हैं।

मोनू लाठिवाल - मेरा मतलब है मोनू लाठी वाला !! 

नंदाखाट और पंवालीद्वार 

इसका नाम नही पता 

रास्ते में खडा मोनू और आगे दिखती नंदाखाट, पंवालीद्वार और बल्जोरी चोटियां 

रास्ते में बर्फ के नाले पर 

कुछ दिन पहले पडी ताजा बर्फ

थोडा और आगे जाने पर नंदाखाट का दृश्य 

नंदाखाट और पंवालीद्वार चोटी की जोडी 

पिंडारी ग्लेशियर के प्रथम दर्शन - दांये और बायेंं क्रमशः छांगुच और नंदाखाट 

ग्लेशियर का प्रथम दृश्य थोडा जूम करने पर 

स्वामीं धर्मानंद बाबा जी की कुटिया पर 

बाबा की कुटिया से नंदाखाट के भव्य दर्शन 

बाबा की कुटिया के अंदर का दृश्य। अभी बाबा जी नही आये हैं इसलिए सामने स्थित नंदा देवी मंदिर का ताला लगा हुआ है। बाबा के आ जाने पर हमने यहाँ माँ नंदा के दर्शन किए थे। 

बाबा की कुटिया से दिखती छांगुच चोटी और पिंडारी ग्लेशियर 

"सूखी नदी" के रास्ते में मोनू

इसी रास्ते में बैठे हुए दोनो बंगाली,तीसरे बंगाली अंकल जी का इंतजार कर रहे हैं। 

पिंडारी ज़ीरो पॉइंट से छांगुच दर्शन 

पिंडारी ज़ीरो पॉइंट पर लगा जर्जर बोर्ड। अगर किसी को दिख जाये तो ये  दर्शा रहा है कि "आगे खतरा है"

पिंडारी ज़ीरो पॉइंट से आगे भी रास्ता जा रहा है। ज़ीरो पॉइंट से दिखती नंदाकोट और छांगुच चोटी 

पिंडारी ग्लेशियर से आ रही पिंडर की धारा 

मोनू भूस्खलन देख रहा है। 

इसी खतरनाक रास्ते पर हमारी वॉट लगी थी। बस हम लोग सामने तक ही गये थे। 

पिंडारी ग्लेशियर  - अद्भुत, अतिसुंदर 

भूस्खलन और नीचे ग्लेशियर से आ रही पिंडर 

ये पूरा इलाका एक महान भूस्खलन क्षेत्र है। 

एक बार और पिंडारी ग्लेशियर के दर्शन कर लो भाई लोग! 

ज़ीरो पॉइंट के पास से वापस नीचे का दृश्य - अभी सुबह के पौने नौ बजे हैं और अभी से घाटी के ओर से बादल आने शुरु हो गये हैं। दोपहर बाद तक तो इस इलाके में इतने बादल छा जाते हैं कि आप ग्लेशियर के दर्शन नही कर सकते। 

"सूखी नदी" के पास नीचे उतरता मोनू और उसके उपर थोडा दायीं ओर दिखता पुणे से आये बच्चों का समूह 

बाबा जी की कुटिया से थोडा उपर -फोटो को बडा करने पर आप बच्चों वाले ग्रुप को पिंडारी ज़ीरो पॉइंट की ओर बढते देख सकते हैं।  

"मैदान मार लिया" वाली मुद्रा में मोनू

वापस बाबाजी की कुटिया पर आराम करता मोनू और नीचे से बाबा का राशन-पानी लेकर आये खच्चर वाले सामान उतारते हुए। 

स्वामी धर्मानंद जी महाराज उर्फ पिंडारी बाबा को चौधरी साब की राम राम 

बाबा के साथ "जाट बाबा" 

वापसी के समय फुरकिया के रास्ते में खिले बुरांश 
अगले भाग में जारी....

इस यात्रा के किसी भी भाग को यहाँ क्लिक करके पढा जा सकता है।
1. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - हरिद्वार से गैरसैंण
2. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - गैरसैंण से खाती गांव
3. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - खाती से फुरकिया 
4. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - फुरकिया से पिंडारी ग्लेशियर और वापस खाती गांव
5. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - खाती से वापस हरिद्वार, नैनीताल होते हुए 

बुधवार, 13 जून 2018

पिंडारी ग्लेशियर यात्रा: खाती से फुरकिया


14 मई 2018, सोमवार
इस यात्रा वृतांत को शुरुआत से पढनें के लिए यहाँ क्लिक करें।
मैं और मोनू अपने पिंडारी ग्लेशियर अभियान पर कल गैरसैण से करीब 210 किमी बाइक चलाकर और 5 किमी ट्रैकिंग करके पिंडारी ग्लेशियर यात्रा मार्ग के अंतिम गांव खाती पहुंच गये थे। हमारा प्लान पिंडारी और कफनी दोनों ग्लेशियर देखने का था। आज हमें करीब 18 किमी की ट्रकिंग करके पिंडारी ग्लेशियर रूट पर पडने वाले अंतिम पडाव स्थल फुरकिया पहुंचना था। अब लगभग अगले तीन दिनों तक के लिए हमारा बाइक से पीछा छूट जायेगा। अच्छा ही रहेगा क्योंकि पिछले दो दिन से बाइक पर चलने के कारण पिछवाडे का बुरा हाल था। अब इसे भी कुछ शांति मिलेगी। कल रात तय किया था कि छह बजे से पहले निकल लेना है। सुबह पौने पांच बजे का अलार्म भी लगाया। लेकिन हम दोनों एक नम्बर के सोतू हैं, बल्कि मोनू तो मुझसे भी बडा सोतू है। उपर से पीडब्लूडी का बंगला भी अच्छा था, हाल-फिलहाल में ही रिनोवेट हुआ था। सोते रहे दोनों मजे में। आंखिरकार मैं ही उठा साढे पांच बजे! फ्रैश होकर मैं ढाबे पर चला गया। नाश्ते के लिए आलू के परांठों का ऑर्डर दे दिया। थोडी देर में मोनू भी आ गया। आलू का परांठा मक्खन और दही के साथ खाकर मजा आ गया। अभी तक गेस्ट हाउस का केयरटेकर भी नही आया था। खाने के भुगतान के साथ-2 गेस्ट हाउस का किराया भी हमनेंं ढाबे वाले को ही दे दिया।

2013 की आपदा के बाद अब खाती से आगे रास्ते के हालात काफी बदल गये हैं। तब पिंडर व कफनी क्षेत्र में हुई लगातार बारिश से पिंडर नदी में आई भयानक बाढ अपने साथ सभी पुलों को बहा ले गई। पिंडर नदी के किनारे बना आरामदायक रास्ता भी इस आपदा की भेंट चढ गया। हाँलाकि पीडब्लूडी विभाग वह रास्ता बना रहा है। पहले खाती से आगे टीआरसी होते हुए पिंडर नदी के किनारे मलियाधौड को जाना होता था। अब एक नया शॉर्टकट लेकिन संकरा रास्ता गांववालों ने काली मंदिर के बगल से पिंडर नदी के पार तक बना लिया है। इस रास्ते की जानकारी आपको गांव में पता करने पर मिल जायेगी। ढाबे वाले ने बताया कि अब गांव के पीछे, मंदिर वाले शॉर्टकट रास्ते से ही आना-जाना हो रहा है। ऊपर टीआरसी वाले रास्ते से अब कभी कभार ही कोई जाता है। वह रास्ता चढाई लिए हुए है और ठीक भी नही है। ढाबे वाले से इसी शॉर्टकट रास्ते के बारे मेें पता करके करीब साढे छह बजे हम लोगों ने अपनी आज की ट्रैकिंग शुरू की। खाती के बाद अगला पडाव द्वाली पडता है। खाती से द्वाली पहले 11 किमी दूर था लेकिन अब पिंडर नदी के साथ-साथ दांये-बांये होते हुए यह करीब दो किमी अधिक हो गया है। काली मंदिर के पास से होते हुए हम नीचे उतर गये। यहाँ से करीब एक - सवा किमी की हल्की हल्की उतराई लिए हुए रास्ता पिंडर तट तक पहुंच जाता है। पूरे पिंडर तट पर बडे बडे पत्थर-बोल्डर पडे हुए हैं। यहाँ गांववालों ने पिंडर पर लकडी एक कामचलाऊ पुल बनाया हुआ है जो नदी में थोडा भी ज्यादा पानी आने पर बह जाता है। बरसात का सीजन आने से पहले गांववाले इसे हटा लेते हैं और बरसात बीत जाने पर पुनः इस जगह ये पुल बना दिया जाता है। 

पुल पार कर रास्ता पिंडर नदी के बांयी किनारे के सहारे-सहारे हो जाता है। करीब एक किमी बाद निगलाधार के पास टीआरसी से आने वाला मेंन रास्ता भी इसमें मिल गया। यहाँ मेंन रास्ते पर पिंडर नदी पार कर इस ओर आने के लिए लोहे का पुल बना है। ये पुल अभी हाल -फिलहाल में ही बना है और पिछले कुछ समय से तिरछा हो रखा है। यहाँ कुछ मजदूर काम कर रहे थे। उनसे पूछने पर मालूम पडा कि पीडब्लूडी वालों की एक टीम कल यहाँ आने वाली है। वो लोग पुल को सीधा करेंगे। इस लोहे के पुल के पास यहाँ भी एक लकडी का अस्थाई पुल बना हुआ है जो अभी उपयोग में है। निगलाधार के आगे का रास्ता हल्की चढाई-उतराई लिए हुए है। रास्ते में कई छोटे - छोटे झरनेंं देखने को मिले। करीब पांच - छह किमी चलने के बाद एक ऐसे ही झरने के पास पीडब्लूडी के रेस्ट पॉइंट पर हम लोग थोडा आराम करने के लिए बैठ गये। यहाँ खाती गांव के खडक सिंह की एक छोटी सी चाय की दुकान है। आज सुबह से इधर आने वाले हम पहले शख्श थे। खडक सिंह भी अभी तक नही आया था, सो दुकान भी बंद थी। करीब बीस मिनट तक आराम कर लेने के बाद खडक सिंह आया। वैसे तो अब हम चलने ही वाले थे मगर जब पहाड में चाय मिल रही हो तो उसे छोडकर भला कौन आगे जाना चाहेगा? चाय के साथ बिस्किट का एक पैकेट भी निपटा दिया गया। कल जब मैं शाम को खाती में टहल रहा था तो चार-पांच बंगाली मिले थे। बातचीत हुई तो वो लोग भी आज सुबह छह बजे तक ही द्वाली के लिए निकलने को बोल रहे थे। खडक सिंह से उनके बारे पुछा तो वो बोला कि चार-पांच लोग आ तो रहे हैं मगर अभी कईं किमी पीछे हैं। खैर, हमें वैसे भी कौन सा उनके साथ जाना है। खडक सिंह का भुगतान कर हम निकल लिए। करीब दो किमी चलने के बाद एक विदेशी अपने पोर्टर के साथ आता मिला। विदेशी जर्मनी का निवासी है। ये लोग कफनी -पिंडारी निपटा के आ रहे हैं और कल फुरकिया में रुके थे। थोडी बहुत हाय-हैलो के बाद हम आगे बढ गये। करीब 11 किमी चलने के बाद जंगल और रास्ता दोनो एकदम से गायब हो जाते हैं। रास्ता सीधे पिंडर नदी में उतर जाता है। द्वाली यहाँ से ठीक सामने ही दिखायी पडता है। मगर उसके लिए कम से कम एक - डेढ किमी नदी तल पर चलकर जाना होता है और पिंडर व कफनी दोनो नदियांं पार करनी होती हैं। नदी तल पर रास्ते की पहचान के लिए लाल-पीले निशान लगे हुए हैं। इस पूरे ट्रैक में अगर कोई रास्ता थोडा खतरनाक है तो वो ये नदी के बेसिन वाला रास्ता है। नदी के बेसिन में चलना काफी दुखदायी होता है। कब कौन सा पत्थर डगमगा के आपके पांव में मोच दे दे, कहा नही जा सकता। पिंडर के इस किनारे से देखने पर द्वाली काफी नजदीक दिखता है, लेकिन ज्यों-2 हम उसकी ओर चलते हैं वह पीछे खिसकता जाता है। पिंडर नदी पर बने लकडी के पुल को पार कर हम नदी के दूसरे छोर पर पहुंचे तो पांच साल पहले की बाढ का तांडव देख बडी हैरानी हुई। भूस्खलन की वजह से किनारे की ओर बजरी - पत्थरों की कई मीटर ऊंची दीवार सी बन गई थी। बाढ की वजह से बने मिट्टी, रेत और छोटे-बडे पत्थरों के ढेर के बीच सिर्फ नदी का शोर सुनाई दे रहा था। इन्हें पार करने के बाद लकडी का एक और पुल दिखा। यह पुल कफनी नदी पर बना है। यहाँ से कफनी की दिशा में देखने पर बडे -बडे पत्थरों का पहाड नदी के बेसिन में दूर तक पडा दिख रहा था। पुल पार करने के बाद हल्की सी चढाई चढकर हम लोग द्वाली पहुंच गये। 

द्वाली में पीडब्लूडी और टीआरसी का एक -एक डाकबंगला है। इसके साथ ही यहाँ दो-तीन ढाबे भी हैं, जिनमें खाना और रहना दोंनो हो जाता है। इस सबके अलावा पास में ही फाइबर हट्स बनाने का काम चल रहा है। द्वाली से पिंडारी और कफनी ग्लेशियर के रास्ते अलग हो जाते हैं। दोनो ही ग्लेशियर यहाँ से बारह - बारह किमी दूर थे, जो अब बढकर करीब 14 किमी हो गए हैं। जहाँ पिंडारी के रास्ते में पांच किमी के बाद फुरकिया आता है, वहीं कफनी के रास्ते में पांच किमी के बाद खटिया आता है। करीब साढे ग्यारह बज रहे थे जब हमनें द्वाली के एक ढाबे में प्रवेश किया। अभी खाना बनने में थोडा समय था तो तब तक के लिए हम तख्त पर लमलेट हो गये। लंच करने के दौरान ढाबे वाले से कफनी के बारे में बात की तो उसने बताया कि आपदा के बाद से कफनी का रास्ता जानलेवा बना हुआ है और अकेले जाने के लिए बिल्कुल भी नही है। पांच किमी दूर खटिया में रुकने के ठिकाने के बारे पूछा तो पता चला कि ग्राम पंचायत वालों ने वहां एक गेस्ट हाउस बनाया तो है, मगर वो अभी बंद पडा है। हम कल फुरकिया से पिंडारी ग्लेशियर निपटा कर कफनी के लिए खटिया तक निकलने की सोच रहे थे। खैर, कल की कल देखेंगे जो भी होगा। लंच करके करीब साढे बारह बजे हम फुरकिया के लिए चल दिए। द्वाली से निकलते ही रास्ता थोडा चढाई लिए हुए है। जहाँ द्वाली करीब 2600 मीटर पर है वहीं फुरकिया करीब 3210 मीटर पर। थोडा चलते ही हल्की -हल्की बूंदाबाँदी होने लगी।करीब दो किमी चलने के बाद आगे वाली पहाडी के नीचे करीब चार-पांचसों मीटर दूर एक रेस्ट पाइंट दिखा तो वहां कुछ देर आराम करने की ठानी। मगर जब शेड कोई पचास मीटर रह गया तो बारिश तेज हो गई। वो पचास मीटर किसी तरह भाग कर हम यात्री शेड में पहुंचे। तेज चढाई थी तो इस पचास मीटर ने हमें हमारी औकात बता दी। कम से कम 10 मिनट लगे होंगे हमारी सांस सामान्य होने में। करीब पंद्रह मिनट बाद उपर से तीन -चार आदमी आये तो हमने पूछा अभी कितना और बचा है फुरकिया। "ढाई किमी और बचा है", ऐसा सुनते ही हमारा यहाँ का स्टॉप और बीस मिनट बढ गया। बारिश लगातार हो रही थी तो रेनकोट पहन लिए। कैमरे को रेनकोट के अंदर छुपा लिया।मगर बैग को बारिश से बचाने के लिए हमारे पास कुछ नही था। इसलिए और आधे घंटे बाद जब बारिश पूरी तरह रुक गई तब हम आगे के लिए निकले। 

साढे तीन बजे के करीब हमने फुरकिया में प्रवेश किया। खाती और द्वाली की तरह यहाँ भी पीडब्लूडी का डाकबंगला है। इसके अलावा रुकने के लिए दो फाइबर हट बने हैं। हट नये बने हैं जबकि डाकबंगला पुराना है। चाहे हट में रुके या डाकबंगले में, दोनो का किराया चार सौ रुपये है। हमनेंं हट में रुकना उचित समझा। हट अंदर से बहुत सुंदर बनी हुई थी। पांच बेड लगे थे, मगर हमने केयरटेकर को बोल दिया कि किसी और को अब ये वाली हट मत देना। उसने बोला कोई नी सर आप आराम से रुको अगर कोई आयेगा तो उसको रेस्ट हाउस दे दूंगा। फुरकिया में एक दुकान भी है जहाँ पर्यटक सीजन में चाय, नाश्ता और खाना मिल जाता है। इस दुकान को यहाँ का केयरटेकर ही चलाता है। नाम भूल गया हूँ। हट में अपने गीले कपडे बदल कर जब तक हम दुकान पर पहुंचे तब तक चाय तैयार हो गई थी। हल्की -हल्की बारिश अभी भी हो रही थी, ऐसे में जलते चूल्हे के सामने बैठकर चाय पीने का मजा कई गुना बढ गया। छह बजे के करीब तीन बंगाली लोग आये। ये लोग मुझे खाती में मिलें लोगों से अलग थे। इन लोगों ने बताया कि वो दूसरा बंगालियों का ग्रुप तो आज द्वाली में ही रुकेगा। इन लोगों में एक बाप-बेटा और एक अन्य कोई व्यक्ति था। इनमें जो अंकल जी थे वो करीब 70-75 साल के तो रहे होंगे। अंकल जी दूसरी बार पिंडारी जा रहे हैं। पिछली बार 12-13 साल पहले वो पिंडारी ग्लेशियर ट्रैक कर चुके हैं। उम्र के इस पडाव पर भी अंकल जी जितने जिन्दादिल और घुम्मकड हैं, ऐसा हमारे इधर शायद ही कोई बंदा हो। डिनर में ढाबे वाले ने आलू बडी की सब्जी और दाल बनायी। डिनर के कुछ देर बाद एक राउंड चाय का और निपटाकर हम अपने आज के ठिकाने पर सोने के लिए आ गये।   

शॉर्टकट वाले रास्ते से पिंडर नदी के तट की ओर

पिंडारे किनारे चौधरी लट्ठ ले के बैठा है। 

2013 की आपदा की कहानी बयांं करती पिंडर

शॉर्टकट वाले रास्ते पर पिंडर पर खाती गांव वालों द्वारा बनाया गया लकडी का कामचलाऊ पुल

बस भाई मोनू, जल्दी पार कर ले ! कहीं स्टाइल मारने के चक्कर में नदी में ना गिर पडिये। 

ये दोनोंं और अन्य तीसरा सफेद डोगी हमारे साथ पूरे रास्ते फुरकिया तक गये थे और अगले दिन हमारे साथ वापस भी आये। 

अब मुख्य रास्ता शुरू हो गया है। द्वाली अभी 07 नही लगभग साढे आठ किमी है। 

द्वाली के पहले के हालात -2013 के बाद से ये सीन ऐसा ही है। वो सामने जो लाल सा कुछ दिख रहा है ना, वही द्वाली है। 

अब रास्ता खत्म ! सीधे नीचे नदी में उतरोऔर बस इन पत्थरों पर कूदते -फांदते चलो। 

खो गये इन पत्थरों के बीच

मोनू और उसका नया  - नया दोस्त! दोस्तनी थी शायद!! हाहाहाहा!!!!


पिंडर नदी पर बना एक और कामचलाऊ पुल के पास मोनू। द्वाली पहुंचने के लिए अभी हमें एक पुल और पार करना है जो कफनी नदी पर बना है। 

फुरकिया में द्वाली की तरफ से आते बादल 

फुरकिया में हमारा रात का ठिकाना 

अगले दिन सुबह 

फुरकिया से थोडा आगे से दिखती नंदा खाट और पंवालीद्वार चोटी - ये फोटो भी अगले दिन का है। 

अगले भाग में जारी.........

इस यात्रा के किसी भी भाग को यहाँ क्लिक करके पढा जा सकता है।
1. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - हरिद्वार से गैरसैंण
2. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - गैरसैंण से खाती गांव
3. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - खाती से फुरकिया 
4. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - फुरकिया से पिंडारी ग्लेशियर और वापस खाती गांव
5. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - खाती से वापस हरिद्वार, नैनीताल होते हुए