गुरुवार, 29 दिसंबर 2016

डोडीताल यात्रा: हरिद्वार से बेवरा चट्टी

काफी समय से सोच रहा था कि डोडीताल लेक जाया जाये। पहले ओक्टूबर में, उसके बाद नवम्बर में भी जाना नही हो पाया। फिर BCMTOURING साइट पर श्री मुकेश वर्मा जी का यात्रा वृतांत देखा। वर्मा जी पिछले साल 22 से 26 दिसम्बर तक डोडीताल ट्रैक पर गये थे। तब वहां 2-3 फीट तक ताजी बर्फ थी। उनके फोटो देखते ही तय कर लिया कि बस मुझे भी इस साल, इसी दौरान मतलब दिसम्बर के तीसरे सप्ताह में डोडीताल जाना है। 24 दिसम्बर की क्रिसमस ईव की छुट्टी थी और 25 को संडे था। बस फिर क्या था? 22-23 की छुट्टी ली ऑफिस से और फाइनल प्लानिंग शुरू हुई डोडीताल की। अनंत से डोडीताल चलने के बारे में बात की लेकिन वो अभी दो दिन पहले ही घर से एक हफ्ते की छुट्टी बिताकर लौटा था तो उसका जाना सम्भव नही हो पा रहा था। वैसे भी हम दोनो एक ही सेक्शन में हैं तो हम दोनो को एक साथ छुट्टी मिलना भी मुश्किल ही था। बस अबकि बार अकेले चलने का फैसला किया। चुंकि सर्दियों का मौसम था तो बैग भरके गर्म कपडे ले लिये और निकल लिया डोडीताल की यात्रा पर।

ग्यारह बजे ऋषिकेश पहुंचा। यहाँ रोडवेज बस अड्डे के पास ही एक प्राइवेट बस अड्डा भी है जहाँ से जीएमवीएन की बसें चलती हैं। उत्तराखंड परिवहन की उपर पहाड पर जाने वाली सभी बसें सुबह-सुबह ही निकल जाती हैं। प्राइवेट बस अड्डे पर उत्तरकाशी जाने वाली एक बस खडी थी। टिकट लिया और चढ लिया इसमे। बस सवा ग्यारह बजे ऋषिकेश से चल दी। ऋषिकेश से उत्तरकाशी 165 किमी है। उत्तराखंड की बसों में एक और रिवाज है। पहाड पर जाने वाली सभी डाक यहाँ इन बसों में डाल दी जाती हैं और कंडक्टर साब की जिम्मेदारी होती है उनको रास्ते में पडने वाले गांवों, कस्बों और शहरों में स्थित पोस्ट-ऑफिसों तक पहुंचाना जहाँ डाक विभाग का कोई कर्मचारी इन डाकों को कंडक्टर साब से ले लेता है। मतलब बेचारे कंडक्टर साब को डबल काम करना होता है - सवारियों की टिकट बनाने के साथ-साथ डाक पहुंचाने का! ऐसा शायद सिर्फ हमारे पहाड में ही मुमकिन है नही तो मैदानों में तो कंडक्टर साब एक ही काम ठीक से कर ले वो ही काफी है। खैर, ऋषिकेश से निकलते ही पहाड शुरू हो गये और लोगों को उल्टियां शुरू। मैं इससे बचने के लिए आगे वाली सीट पर ही बैठा था। उपर वाले की दुआ से मुझे पूरे रास्ते में कहीं भी उल्टी-चक्कर की दिक्कत नही हुई।

करीब डेढ बजे चम्बा पहुंचे। मैन चौराहे के पास ही चालक ने बस रोक दी - जिसको खाना खाना है, खा लो। बस यहाँ आधे-पौने घंटे के लिए रुकेगी। भूख भी जोरों की लग रही थी, एक प्लेट राजमा चावल निपटा दिये। लगभग ढाई बजे चम्बा से चले। मैन चौराहे से पुरानी टिहरी रोड पर थोडा चलते ही बांयी ओर गंगोत्री रोड के लिए मुड गये। दरअसल गंगोत्री रोड पहले इसी पुरानी टिहरी रोड से होकर ही जाती थी, लेकिन टिहरी बांध बनने से यह रोड पानी में समा गयी और उत्तरकाशी-गंगोत्री जाने के लिए ये नई रोड बनी जो थोडा घूमकर जाती है। जबकि अब पुरानी टिहरी रोड भागीरथी पुरम, डैम तक जाती है।

छाम, कंडीसौड, चिन्यालीसौड होते हुए करीब पांच बजे बस धरासू बैंड पहुंची। धरासू बैंड एक तिराहा है जहाँ से गंगोत्री और यमनोत्री का रास्ता अलग होता है। यहाँ से सीधा रास्ता उत्तरकाशी होते हुए गंगोत्री जाता है जबकि दूसरा बांयी ओर वाला रास्ता बडकोट होते हुए यमनोत्री जाता है। यहाँ भी बस 5-10 मिनट के लिए रुकी। सर्दी सी लग रही थी। एक चाय निपटा दी गयी। धरासू बैंड से उत्तरकाशी लगभग 25-26 किलोमीटर रह जाता है। करीब छह बजे उत्तरकाशी पहुंचा। अपने गाइड बलबीर पंवार को फोन किया, वो आज उत्तरकाशी में ही था। अपने गांव के प्रधान के साथ किसी मीटिंग में शामिल होने आया था। बलबीर बस अड्डे पर ही आ गया। होटल पहुंचने पर जब भयंकर ठंड लगने लगी तो समझ आया कि मैं पहाड में आ चुका हूँ। एक्स्ट्रा जैकेट पहनी और गरम लोई औढी तब जाकर ठंड कम सी हुई। रात हो चुकी थी और अब करना भी क्या था? बस डिनर किया और सो गये।

दूसरा दिन:
अगले दिन सुबह 7 बजे आंख खुली तो याद आया कि मैं तो उत्तरकाशी में हूँ। सुबह के समय भी काफी ठंड थी। और ज्यादा ठंड में मेरे नहाने का तो सवाल ही नहीं उठता। बस हाथ - मुंह धुले, नाश्ता किया और निकल लिए। उत्तरकाशी बस अड्डे से थोडा सा आगे चलते ही जीप-स्टेंड है जहाँ से मनेरी, भटवाडी, संगमचट्टी वगरह के लिए जीपें चलती हैं। हमें संगमचट्टी जाना था जहाँ से डोडीताल का ट्रैक शुरू होता है। सुबह का समय था तो संगमचट्टी जाने वाले काफी कम लोग थे - मैं, बलबीर, अ‍ग़ोडा गांव के स्कूल में पढाने वाले एक मास्टर जी। बस हम तीन ही लोग थे। जीप वाले ने बोला कि कम से कम 8-10 सवारियां होंगी तब मैं चलुंगा। करीब एक - डेढ घंटा लग गया इतनी सवारियां होने में। करीब दस बजे हम यहाँ से चले। उत्तरकाशी से संगमचट्टी 15 किलोमीटर है और पूरा रास्ता गंगोरी से अस्सीगंगा नदी के साथ-साथ जाता है। गंगोरी, उत्तरकाशी से करीब तीन किलोमीटर दूर गंगोत्री रोड पर है। अस्सीगंगा का जन्म डोडीताल लेक से ही होता है और गंगोरी में ये भागीरथी में मिल जाती है। अस्सीगंगा नदी में 2012 में बाढ आयी थी जिसके निशान नदी में आज तक दिखायी देते हैं। बडे-बडे पत्थर नदी में हर जगह बिखरे पडे थे। करीब पौने ग्यारह बजे संगमचट्टी पहुंचे। सडक बस यहीं तक आती है। इस इलाके में तीन - चार गांव हैं जिनके लिए संगमचट्टी जीप - स्टेंड का काम करता है। यहाँ दो-तीन ढाबे भी हैं। यहीं एक ढाबे पर चाय पी और अपनी डोडीताल यात्रा का पैदल सफर शुरू कर दिया।

संगमचट्टी से निकलते ही चढाई शुरू हो गयी। कच्ची मिट्टी के पहाड पर जगह - 2 भूस्खलन हो रखा था। रास्ता भी उसी के उपर से बना हुआ था। संगमचट्टी से अगोडा गांव पांच किलोमीटर है और पूरा रास्ता अस्सीगंगा के बांयी और से जाता है। मेरा गाइड बलबीर अगोडा का ही रहने वाला है। बलबीर ने निम (नेहरू पर्वतारोहण संस्थान) उत्तरकाशी से बेसिक माउंटेनियरिंग का कोर्स कर रखा है और डोडीताल- दारवापास-हनुमानचट्टी, दयारा बुग्याल के ट्रैक पर गाइड का काम करता है।

लगभग दो घंटे लगे हमें अ‍गोडा पहुंचने में। अगोडा से थोडा पहले बांयी ओर एक और गांव पडता है - भंकोली नाम है शायद। अगोडा में एक प्राइमरी स्कूल है जबकि भंकोली में इंटर कॉलिज है। इन स्कूलों में पढाने वाले ज्यादातर टीचर्स या तो गंगोरी में रहते हैं या उत्तरकाशी में। यानी हर रोज इन टीचर्स को अपने-अपने स्कूल पहुंचने के लिए काफी मशक्कत करनी पडती है। पहले 15 किलोमीटर उबड-खाबड पहाडी रास्तों पर जीप से संगमचट्टी पहुचो और फिर 5 किलोमीटर पैदल चलो तब जाकर कहीं स्कूल पहुंच पाते हैं। हिम्मत है भाई इन मास्साब की! खैर, अगोडा में हम सीधे बलबीर के घर पहुंचे। बलबीर ने पहले ही अपनी घरवाली को राजमा-भात बनाने कि लिए बोल दिया था। यहाँ पहुंचकर राजमा-भात का आनंद लिया। कुछ देर आराम किया और अपनी आज की मंजिल बेवरा चट्टी की और बढ चले।

अ‍गोडा से बेवरा दो किलोमीटर के करीब है। पूरा रास्ता उतराई वाला है। एक घंटे में ही हम लोग बेवरा चट्टी पहुंच गये। डोडीताल ट्रैक पर अगोडा के अलावा और कोई गांव नही पडता। बस दो तीन जगह कैम्पिंग साइट हैं जहाँ या तो ढाबे बने हुए हैं या फिर हट्स। बेवरा ऐसी ही एक कैम्पिंग साइट है। मैंने तो पूरी यात्रा में इसे बेवडा ही बोला! यहाँ तीन-चार ढाबे और रुकने के ठिकाने बने हुए थे, शायद गर्मियों में जब डोडीताल यात्रा का सीजन होता है तब यहाँ बहार रहती होगी। मगर अब केवल एक ही ढाबा खुला था - चाचा का ढाबा! अभी पौने तीन ही बजे थे और बेवरा में नेटवर्क नही था। घर भी फोन करके अपनी सलामती की सूचना देनी थी तो कुछ मटरगस्ती करने और घर बात करने के लिए हम उपर की ओर निकल लिये।
हरिद्वार में मेरे क़्वाटर के आंगन में खिला एक गुलाब

ऋषिकेश


उत्तरकाशी का शोक - वार्णावत पर्वत

अगली सुबह उत्तरकाशी बस अड्डे के पास

पहचान तो गये ही होगे आप

उत्तराखंड में भी जल्द ही चुनाव आने वाले हैं।
संगमचट्टी - ये जो बंदा अपनी पैंट उपर कर रहा है यही हमारा ड्राईवर था जिसने उत्तरकाशी से आते समय कम से कम 8-10 सवारियां होने पर ही चलने की बात कही थी।

डोडीताल पैदल यात्रा शुरू-अस्सीगंगा के उपर बना पुल

थोडा उपर जाने पर दिखता संगमचट्टी

भू-स्खलन और उसके उपर से जाता रास्ता। पास में ही दांयी साइड में गहरी घाटी में अस्सीगंगा बह रही है।

दूर से दिखता अगोडा गांव - अगोडा में भी फॉरेस्ट विभाग वालों एक रेस्ट हाउस है।

ये बोर्ड देखकर पता चला कि अगोडा से भी कोई रास्ता हनुमान चट्टी के लिए जाता है। हनुमान चट्टी यमुना घाटी में है।

बेवडा में एक छोटी सी नदी के पुल पर

बेवडा से दूरियां

बेवडा!!

बहुत खलबली मचा रहा था, आंटी जी ने पकड लिया।


घर पर सूचना दी जा रही है कि सही सलामत हूँ।
ढाबे पर कुछ विचार-विमर्श में - चाचा, बलबीर और डोडीताल स्थित फॉरेस्ट रेस्ट हाउस का चौकीदार मनी। चूल्हे पर दाल पक रही है। चाचा ने डिनर में आलू राई की सब्जी और दाल बनायी थी।
अगले भाग में जारी......

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