सोमवार, 20 नवंबर 2017

रुपकुंड ट्रैक: भगुवाबासा से रुपकुंड और वापस आली बुग्याल

03 अक्टूबर, 2017
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तीन अक्टूबर की सुबह करीब पौने पांच बजे मैं सोकर उठा। असल में भगुवाबासा ज्यादा ऊंचाई पर होने के कारण रात में ठीक से नींद ही नही आयी थी। बार - बार आंख खुल जाती, मैं मोबाइल में देखता कि कितना समय हुआ है और सुबह के इंतजार में फिर से सोने की कोशिश करता। आंखिरकार पौने पांच बजे मैं उठ गया। थोडी देर तक टेंट में ही अपने स्लीपिंग बैग में बैठा रहा। बाहर देखा कुछ लोग जगे हुए हैं, ढाबे वाले भी जाग गये हैं। यहाँ यूथ होस्टल वालों का 8-10 लोगों का एक ग्रुप था, 4-5 बंदे और थे और मैं था। टोटल 17-18 लोग हम आज रुपकुंड जाने वाले थे। मैं अपने टेंट से निकलकर बगल वाले ढाबे पर पहुंचा। गजेंद्र के बारे में पूछा तो पता चला वो रात इस ढाबे पर नहीं सोया किसी दूसरे ढाबे वाले के यहाँ है। खैर थोडी देर ढाबे वालों से मगजमारी करी तब तक गजेंद्र भी आ गया। फैश होकर और चाय-पारले जी का नाश्ता करके करीब पौने छह: बजे हम लोग रुपकुंड के लिए निकल लिए। सारा सामान यहीं टेेंट में ही छोड दिया बस कैमरा और पानी की बोतल साथ ले ली। यूथ होस्टल वालों का ग्रुप भी हमारे साथ ही निकला जबकि बाकि के 4-5 लोग हमसे करीब बीस मिनट पहले निकल गये थे।

भगुवाबासा से रुपकुन्ड लगभग तीन किमी है जिसमे आधा रास्ता तो हल्की हल्की चढाई वाला है जबकि आंखिर के डेढ किमी का रास्ता काफी चढाई वाला और जानलेवा है। इस पूरे रास्ते में खडी चढाई है जो कि पत्थरों - चट्टानों के चूरे के उपर से जाता है। शुरुआत के आधे किमी के सफर में अंधेरा था और हमें टोर्च जलाकर बडी सावधानी से चलना पड रहा था। कल बेदनी से जो ग्रुप हमारे साथ आया था उनके टेंट्स भगुवाबासा से करीब 100-150 मीटर आगे लगे हुए थे। और वो लोग भी आज ही रुपकुंड जायेंगे लेकिन जब हम उनके पास से गुजरे तो उनमें से कुछ लोग जगे थे उन्होने बताया कि उनका आज सात बजे निकलने का प्लान है और रुपकुंड देखकर शाम तक वो लोग बेदनी बुग्याल या पत्थर नाचनी पहुंचेगे। आधे रास्ते जाने पर एक ढाबा मिला। अब तक सूरज निकल आया था लेकिन ठंड अभी भी अपने चरम पर ही थी। ढाबे के आस-पास पडी ओस की बूंदे जम गयी थी और हर जगह पाला जैसा पडा हुआ था। यहाँ हम लोगो ने चाय पी और कुछ देर आराम किया गया। यहाँ भी एक बंदे को एल्टिट्यूड सिकनेस हो गयी थी तो उसे इसी ढाबे वाले के पास रुकने के लिए छोड दिया।

ढाबे से आगे निकलते ही खडी चढाई शुरु हो गयी और थोडी ही देर में समझ आने लगा कि क्यों इस एक- डेढ किमी के हिस्से को रुपकुंड यात्रा का कठिनतम भाग कहा जाता है। पिछले साल की गयी श्रीखंड महादेव यात्रा के आंखिरी दिन की यात्रा की याद ताजा हो गयी जब हम लोग पार्वती बाग से श्रीखंड गये थे तो वो रास्ता भी लगभग ऐसा ही था पत्थर और चट्टानों का चूरा और समुद्रतल से उंचाई 4200 मीटर से उपर ! हाँलाकि उसमें तो बारिश होने की वजह से थोडी फिसलन भी थी कम से कम इधर ऐसा तो नही था। जैसे - जैसे हम लोग उपर चढते जा रहे थे ग्रुप मेंम्बर कम होते जा रहे थे। मतलब कुछ लोगों का ज्यादा बुरा हाल था वो एक-दो कदम चलते और फिर 5-7 मिनट रुकते जिसकी वजह से वो पीछे छूट जा रहे थे। खैर धीरे धीरे चलते हुए हमने ये कठिन रास्ता भी पार कर लिया और करीब सात पचास पर मैं रुपकुंड पहुंच गया। हमारे साथ चले बाकि के लोग अभी पीछे ही थे जबकि जो 4-5 बंदे हमसे बीस -पच्चीस मिनट पहले चले थे वो लोग मुझसे बस थोडी ही दूर थे मगर वो अब जुनारगली की चढाई कर रहे थे।

रुपकुंड ----- 4850 मीटर के करीब उंचाई! मेरे बिल्कुल ठीक सामने थोडा नीचे एक बडे से गड्डे के रुप में है जिसके तीन तरफ खडी चट्टाने हैं जिनसे लगातार पत्थर और मलबा झील में गिरता रहता है। झील के दांयी ओर से रास्ता पहाड के उपर चढकर जुनारगली दर्रे तक जाता है। रुपकुंड के पास अभी धूप नही आयी है। मेरा पोर्टर गजेंद्र करीब 100 मीटर दूर धूप में ही रुक गया है और मैं यहाँ अकेला हूँ। मुझे थकान हो रही है तो मैं थोडी देर के लिए बगल में बने एक चबूतरे जैसी जगह पर बैठ जाता हूँ। मेरे बगल में ही एक छोटा सा मंदिर है जिसमें भगवान शिव और माता पार्वती की मूर्तियां रखी हैं। दूसरी ओर एक अन्य चबूतरे पर कुछ कपाल और बहुत सारी हड्डियां रखी हैं। इन्ही हड्डियों को देखने मैं यहाँ आया हूँ। सामने नीचे झील की ओर देखता हूँ। झील में थोडा सा पानी दिख रहा है जो शायद आधा जमा हुआ भी है और किनारे-किनारे थोडी सी ठोस बर्फ भी दिखायी दे रही है। झील के आसपास और उसके अंदर भी काफी हड्डियां हैं जो मुझे बाद में झील पर जाने पर दिखायी दी। यहाँ हवा में ऑक्सीजन की कमी साफ महसूस की जा सकती है। यहाँ थोडी देर आराम करने के बाद मैंने कपाल, हड्डियों, मंदिर और आसपास के कुछ फोटो लिये। भारतीय पुरातत्व विभाग के अनुसार ये मानव कंकाल और हड्डियां करीब एक हजार साल से भी ज्यादा पुरानी हैं मगर ये तो आज भी ऐसी ही लगती हैं जैसे बस कुछ ही सालों पुरानी हों।

थोडे बहुत इधर उधर के फोटो खिंचने के बाद मैं नीचे झील के तल पर गया। अभी भी मैं यहाँ अकेला ही था और सच बताऊं तो हल्का हल्का अजीब सा डर भी लग रहा था। झील के आस पास भी चारों ओर हड्डियां बिखरी पडी थी। एक चश्मा और एक कंघा भी वहां पडा दिखा जो शायद आज के युग के ही आदमी का था। झील में काफी पानी था जो आंशिक रुप से जमा हुआ था। झील के तीन ओर सीधे खडे पहाडों को पूरी गर्दन उठा कर देखना पड रहा था। ऐसा लग रहा था मानों अभी ये चट्टानें मेरे उपर आ गिरेंगी। यहाँ भी कुछ देर झील और उसके आसपास के फोटो लिए। इसी बीच उपर मंदिर के पास से कुछ आवाज सी आयी तो देखा वहां यूथ होस्टल वाले ग्रुप का गाइड और 3-4 लोग थे। अब जाकर ये लोग यहाँ पहुंचे हैं। फोटो खींचकर मैं बाहर आया तो वो यूथ होस्टल वालों का गाइड बोला "आगे नही जओगे क्या?" मैंने कहा "आगे कहाँ"। वो बोला "जुनारगली तक जाइए वहां से त्रिशुल और नंदाघुंटी का व्यू बहुत अच्छा है और आप तो बढिया आये हो आराम से चले जाओगे।" मैंने कहा "तुम लोग जाओगे क्या?" "नही ,हमारा तो बस रुपकुंड तक का ही है। हम लोग आगे नहीं जायेंगे।" मै बोला "मैं भी नही जा रहा, अभी वापिस भी जाना है और आज शाम तक आली भी पहुंचना है।" सही बताऊं तो अब मेरे दो मन हो रहे थे। एक कह रहा था चल यार उपर जुनारगली तक चलते हैं थोडी ही तो चढाई है। तो दूसरा मन कह रहा था कि भाई उपर तक जाने में हालत खराब हो जानी है और आने-जाने और वहां रुकने में 2 घंटे लग जायेंगे जिससे शायद हम आज आली ना पहुंच पाएं। उपर से गजेंद्र भी 100 मीटर पीछे ही बैठ गया था अगर वो भी साथ होता तो शायद फिर भी चले जाते। इसी सोच के साथ आंखिरकार मैंने फाइनल निर्णय किया कि बस वापस चलता हूँ। मगर वापस आने पर मुझे लगा कि गलती कर दी भाई तुने। इतने करीब होने पर भी जुनारगली नही गया। अब न जाने कभी इधर आना होगा भी या नही। जाना चाहिए था।

मैं वापस आकर गजेंद्र के पास बैठ गया और थोडी देर धूप सेकने के बाद करीब साढे नौ बजे हम लोग वापस लौट चले। वापसी के रास्ते में हमें काफी लोग रुपकुंड की ओर जाते मिले। एक 3-4 आईएएस प्रशिक्षुओं का ग्रुप मिला जो देहरादून से आया था और रात डेढ बजे ये लोग बेदनी बुग्याल से चले थे। इनमें से ज्यादातर लोग पहाडी ही थे। इनमे से ही एक लडकी थी जो सबसे आगे चल रही थी और जरा सी भी थकी हुई नही लग रही थी। इन्होने हमसे पूछा कि रुपकुंड और कितनी दूर है। हमने कहा बस आप लोग पहुंच ही गये,अब तो थोडा ही बचा है। लगभग ग्यारह बजे हम लोग भगुवाबासा लौटे। भूख जोरों से लगी थी तो यहाँ आलू परांठे और चाय का नाश्ता लिया गया। कुछ देर आराम किया और फिर अपना टेंट वगरह का सारा ताम झाम लेकर भगुवाबासा से वापसी की राह पकड ली।

कलुवा विनायक पर वो ग्रुप मिला जो कल हमारे बाद बेदनी से चला था और रात में पत्थर नाचनी में रुका था। इनमें एक कपल से बेदनी में मेरी थोडी बहुत बातचीत हुई थी तो यहाँ मिलते ही वो बोले रुपकुंड कम्पलीट कर आये। शाबाश !  पूछने लगे भगुवाबासा और कितनी दूर है। मैंने कहा बस दो -ढाई किमी होगा और सीधा -सीधा ही रास्ता है। उन लोगों को उनकी आगे की यात्रा की शुभकामनायें देकर हम लोग नीचे चल दिए। सवा बजे के करीब पत्थर नाचनी पहुंचे। यहाँ मैगी चाय का आनंद लिया और कुछ देर आराम किया। इसके बाद आराम -आराम से चलते हुए भी करीब चार बजे तक हम लोग आली बुग्याल स्थित एक मात्र ढाबे पर पहुंच गये। इस समय आली में बादल हो रखे थे और हम थके हुए भी थे तो आज आली के 1-2 फोटो ही लिए। आली की सुंदरता का आनंद अगले दिन लिया गया जो अगली पोस्ट में दिखाया जायेगा।

भगुवाबासा कैम्प साइट से करीब एक किमी आगे जाने पर - पीछे दूर भगुवाबासा में टेंट्स दिख रहे हैं। 

रुपकुंड यात्रा का ये भाग श्रीखंड महादेव यात्रा के अंतिम दिन की याद दिला देता है।

चट्टानों का चूरा और खडे पहाड


रुपकुंड झील पर स्थित महादेव मंदिर

रुपकुंड के सुप्रसिद्ध नरकंकालों की हड्डियां 


कपाल - कपालभांति वाला नही 


एक बडे से कटोरेनुमा रुपकुंड लेक

झील के किनारे पडी इंसानी हड्डियां

अर्धजमी रुपकुंड और उसके किनारे जमी बर्फ



किसी आज के काल के आदमी का चश्मा
जुनारगली दर्रा  और उसके पास स्थित कुछ लोग दिख रहे हैं।



रुपकुंड से उपर जुनारगली दर्रे की ओर जाता रास्ता

अब झील पर यूथ होस्टल वाले ग्रुप के लोग आ गये हैं। 

रुपकुंड के दांयी ओर वाले पहाड पर बर्फ

रुपकुंड से  आधा किमी नीचे आने पर दिखता उच्च हिमालयी नजारा

थोडा ओर नीचे जाने पर दिखती त्रिशुल चोटी

वापसी के समय रास्ते से दिखता बेदनी कुंड और बेदनी बुग्याल कैम्प साइट 

बेदनी से आली बुग्याल जाता रास्ता 

शाम के समय बादलों की धुंध के बीच आली बुग्याल 

अगले दिन सुबह के साफ मौसम में आली बुग्याल 
अगले भाग में जारी......

इस यात्रा वृतांत के किसी भी भाग को नीचे दिए गए लिंक्स पर क्लिक करके पढा जा सकता है।

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