गुरुवार, 12 अक्तूबर 2017

रूपकुंड ट्रैक - हरिद्वार से लोहाजंग

30 सितम्बर, 2017
उत्तराखंड के चमोली जिले में गढवाल और कुमाऊं की सीमा पर एक विशाल पर्वत गुच्छ है - नंदा देवी रेंज। जिसमें नंदा देवी (भारत की दूसरी सबसे ऊंची चोटी - करीब 7800 मीटर), त्रिशूल (7150 मीटर के करीब), नंदाघुंटी, नंदाकोट, नंदाखाट, मृगथुनी  आदि अनेकों पूरे वर्ष हिमाच्छादित रहने वाली चोटियां हैं। यह पूरा इलाका नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क के नाम से जाना जाता है। यहीं पर करीब 16000 फुट ( ‍‍‍‍‍~4850 मीटर) की ऊंचाई पर त्रिशूल चोटी के नीचे स्थित है रुपकुंड झील। वैसे तो पूरे उत्तराखंड में ही बहुत सारी झीलें हैं मगर रुपकुंड उन सबमें अलग है - अनोखी है, रहस्यमयी है। अनोखी और रहस्यमयी इसलिये क्योंकि इस झील में अनेकों मानव कंकाल बिखरे पडे हैं। जो कार्बन डेटिंग़ के रिजल्ट के अनुसार नवीं शताब्दी के आसपास के हैं। करीब 200 से 500 मानवों के कंकाल यहाँ बताये जाते हैं। जिसका मतलब है कि कोई बहुत बडा ग्रुप यहाँ रहा होगा जो अत्यधिक बर्फबारी या किसी अन्य प्राकृतिक आपदा या हादसे का शिकार हो गया और उन सबकी मौत हो गयी। अत्यधिक ऊंचाई और अधिकांश समय बर्फ में दबे रहने के कारण ये कंकाल आज भी रुपकुंड में ऐसे ही सुरक्षित हैं। 

अब अगर रुपकुंड लेक और नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क की बात हो रही है तो थोडी बात नंदा देवी राजजात यात्रा की भी कर लेते हैं। उत्तराखंड के प्रसिद्ध सांस्कृतिक आयोजनों में से एक नंदा देवी राजजात यात्रा इसी इलाके में होती है। नंदा देवी गढवाल और कुमाऊं दोनो मंडलों की इष्ट देवी है और इसी कारण इसे राजराजेश्वरी भी कहा जाता है। नंदा देवी को माता पार्वती की बहन के रुप में जाना जाता है बल्कि कहीं - कहीं तो इसे पार्वती के ही एक रुप में पूजा जाता है। पूरे उत्तराखंड में एक समान रुप से मान्यता होने के कारण ही नंदा देवी उत्तराखंड को एकता के सूत्र में बांधती है। नंदा देवी से जुडी यात्रा या जात दो प्रकार की है - वार्षिक जात और राजजात। वार्षिक जात हर साल अगस्त - सितम्बर माह में होती है जो कुरूड के नंदा देवी मंदिर से शुरू होती है और बेदनी बुग्याल स्थित बेदनी कुंड तक जाकर लौट आती है। जबकि राजजात बारह वर्ष में एक बार होती है और मान्यता के अनुसार चमोली जिले के नौटी गांव से शुरू होती है। रास्ते में और भी जगहों से अन्य डौलियां इस जात में शामिल होती हैं। राजजात लगभग 250 किमी की यात्रा तय करती है और अंत में लोहाजंग - वाण - बेदनी बुग्याल - रुपकुंड - जुनार्गली होते हुए होमकुंड पहुंचती है। होमकुण्ड से चनण्याँघट (चंदिन्याघाट), सुतोल से घाट होते हुए नन्दप्रयाग और फिर नौटी आकर यात्रा का चक्र पूरा होता है।

इस राजजात में चौसिंग्या खाडू़ (चार सींगों वाला भेड़) भी शामिल किया जाता है जोकि स्थानीय क्षेत्र में राजजात का समय आने के पूर्व ही पैदा हो जाता है, उसकी पीठ पर रखे गये दोतरफा थैले में श्रद्धालु गहने, श्रंगार-सामग्री व अन्य हल्की भैंट देवी के लिए रखते हैं, जोकि होमकुण्ड में पूजा होने के बाद आगे हिमालय की ओर प्रस्थान कर लेता है। लोगों की मान्यता है कि चौसिंग्या खाडू़ आगे बिकट हिमालय में जाकर लुप्त हो जाता है व नंदादेवी के क्षेत्र कैलाश में प्रवेश कर जाता है।

यूं तो नंदा देवी राजजात यात्रा पर जितना लिखा जाय उतना कम है मगर एक मोटी - मोटी जानकारी उपर दे दी गयी है जो मेरे कुछ गढवाली दोस्तों, रुपकुंड यात्रा के दौरान लोकल लोगों द्वारा दी गयी जानकारी और विकीपिडिया पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है। चुंकि मैंने रुपकुंड की यात्रा (ट्रैक) की है इसलिए अब आगे उसी के बारे में चर्चा की जायेगी।

चमोली जिले के कर्णप्रयाग से एक रास्ता पिंडर नदी के किनारे - किनारे सिमली होते हुए थराली जाता है। थराली से एक रास्ता देवाल, मुंदोली व लोहाजंग होते हुए वाण गांव तक पहुंचता है जहाँ से रुपकुंड ट्रैक की शुरुआत होती है। वैसे रुपकुंड जाने के दो मुख्य रास्ते हैं। पहला वाण से गैरोली पाताल, बेदनी बुग्याल होते हुए और दूसरा लोहाजंग से चार किलोमीटर आगे कुलिंग़ गांव से दीदना, आली बुग्याल होते हुए। मेरे हिसाब से वाण वाला रास्ता थोडा सा कम थकान वाला है जबकि कुलिंग़ - दीदना वाले रास्ते पर चढाई ज्यादा है। टोटल एक साइड से लगभग 25-26 किलोमीटर का ट्रैक है रूपकुंड तक के लिये।
वैसे तो मैं काफी समय से रुपकुंड के बारे में पढता आ रहा था और वहां जाने की सोचता भी रहता था। मगर इसी साल वहां जाना होगा ऐसा सोचा नही था। गांववाले दोस्तों मोनू, विकास और पंडत जिनके साथ मैं इस साल केदारनाथ गया था उनसे बात हुई तो उन लोगो ने दशहरे के आसपास कहीं घूमनें चलने के बारे में कहा। इस समय मेरी भी तीन दिन की छुट्टियां थी और श्रीमती जी को मायके जाना था 10-15 दिन के लिए, तो प्लान बनने लगा यमनोत्री, गंगोत्री और गौमुख जाने का। इस यात्रा में लगभग एक सप्ताह का समय लगने वाला था तो उसी हिसाब से ऑफिस में एक्स्ट्रा छुट्टियां ली जायेंगी। धीरे - धीरे हमारी प्लानिंग इसी दिशा में आगे बढने लगी। लेकिन मुझे इस समय में गौमुख जा पाना मुश्किल सा लग रहा था। क्योंकि 30 सितम्बर व 1 -2 अक्तूबर की सरकारी छुट्टी थी तो मुझे लगा शायद ऐसे में हमें वन विभाग से गौमुख जाने का परमिट नही मिलेगा जिससे हम गंगोत्री से आगे नही जा पायेंगे। क्योंकि शायद गंगोत्री से 1-2 किमी आगे कनखू से गंगोत्री नेशनल पार्क शुरू हो जाता है जिसमें गौमुख या उससे आगे जाने के लिए वन विभाग का परमिट लगता है जो उत्तरकाशी और गंगोत्री में बनता है। अपने इस "डाउट" को मैंने मोनू - विकास लोगों के सामने रखा और कहीं दूसरी जगह चलने के बारे में विचार करने को कहा तो वो बोले के भाई हमें तो घूमना है चाहे कहीं चलो। इसके बाद ही मेरे दिमाग में रुपकुंड का ख्याल आया और अपने इस खयाल से इन लोगों को अवगत कराया तो शुरु में तो सब राजी हो गये। सबकी इस हाँ पर मैंने आगे रुपकुंड के बारे में जानकारी जुटाना शुरू कर दिया - मतलब कैसे जाना है, कहाँ रुकना है, रहने खाने का क्या बंदोबस्त करना है? वगरह, वगरह। मगर 4-5 दिनों के बाद ही इन लोगों ने रुपकुंड जाने से मना कर दिया और फिर से यमनोत्री, गंगोत्री जाने की बात करने लगे। उधर मैंने कई दिनों से रुपकुंड की काफी जानकारी इकट्ठा कर ली थी। और उपर से जब इन लोगों की यात्रा में गौमुख नही हो पा रहा है तो खाली गंगोत्री जाने का क्या लाभ? इसी सोच के साथ मैंने अकेले रुपकुंड जाने का फैंसला किया।
30 सितम्बर की सुबह छहः बजे मैंने हरिद्वार स्थित अपने क्वार्टर से प्रस्थान किया। अकेला होने के कारण न तो मुझे कहीं किसी का इंतजार करना था न ही कहीं जगह जगह रुकना पडा। करीब साढे सात बजे बयासी पहुंचकर चाय - परांठे का नाश्ता किया और आगे बढ चला। सवा नौ बजे देवप्रयाग पहुंचा और संगम के कुछ फोटो लिये, स्कूटी में टेंक फुल कराया और 10-15 मिनट यहाँ रुककर आगे बढ गया। आज दशहरा था यानि छुट्टी का दिन तो रास्ते में कहीं भी कुछ खास ट्रैफिक नही मिल रहा था। हाँ, लेकिन आज पहाड में जगह - जगह शादियां बहुत हो रही थी। हर किसी छोटे - बडे कस्बे में कोई न कोई शादी थी आज। वापस आने पर मेरे एक पहाडी दोस्त आशीष मैठानी ने मुझे बताया कि पहाड में दशहरे के दिन शादियों का मुह्र्त होता है। खैर मैं आराम से श्रीनगर पार करके करीब साढे ग्यारह बजे धारी देवी के पास पहुंचा। नीचे अलकनंदा नदी के बीच में ही धारी देवी का मंदिर है जिस तक जाने के लिए एक लोहे का पुल बना है। दरअसल पहले यह मंदिर नदी के किनारे था मगर श्रीनगर में कोई जल विद्युत परियोजना के चलते इसे विस्थापित करना पड रहा था। कहते हैं 2013 में जिस दिन धारी देवी की मुर्ति को विस्थापित करने के लिए उठाया गया उसके अगले ही दिन उत्तराखंड में केदारनाथ आपदा आयी थी। जिस वजह से धारी देवी को विस्थापित नही किया गया बल्कि उसी स्थान पर उपर उठा दिया गया और अब वहां नदी के उपर ही धारी देवी का भव्य मंदिर बन रहा है। यहाँ आज थोडी बहुत भीड थी। कल ही नवरात्र खत्म हुए थे और काफी लोग धारी देवी के दर्शन करने आये हुए थे। मैंने भी स्कूटी एक दुकान वाले के पास खडी की और नीचे मंदिर की ओर देवी मां के दर्शन करने चला गया। काफी लम्बी लाइन लगी थी और अगर मैं साइड से आगे जाकर दूसरी तरफ से मंदिर में ना जाता तो मुझे लाइन में ही कम से कम एक - डेढ घंटा लग जाता। ऐसे दर्शन करने में भी करीब आधा घंटा लगा मुझे टोटल। अभी आज मुझे बहुत आगे जाना था। इसलिए बिना देरी किए स्कूटी उठाई और निकल लिया।

दो बजे के करीब कर्णप्रयाग पहुंचकर खाना खाया और थराली - ग्वालदम जाने वाले रास्ते के बारे में पता कर उस पर बढ चला। पांच किलोमीटर दूर सिमली आया। यहाँ से एक रास्ता गैरसैण - चौखुटिया - द्वाराहाट होते हुए रानीखेत जाता है जबकि दूसरा रास्ता थराली - ग्वालदम - बैजनाथ होते हुए अल्मोडा जाता है। मैं इसी दूसरे रास्ते पर बढ चला। शुरु के 3-4 किमी तक तो रास्ता बढिया बना हुआ था लेकिन उसके बाद नारायणबगड और उससे भी आगे करीब 8-10 किमी का रास्ता एकदम खराब था। दरअसल इस पूरे इलाके में लैंडस्लाइड हो रखा था और कहीं - कहीं तो अभी भी सडक से मलबा हटाने का कार्य चल रहा था। ऐसी ही एक जगह मुझे भी करीब 10-15 मिनट के लिए रुकना पडा। अब मुझे समझ आया था कि क्युं बारिश के दिनों में अखबार में खबरें आती थी कि पिंडर घाटी बारिश से थर्रायी, कई सडकें बंद - वगरह, वगरह! करीब साढे चार बजे थराली पैट्रोल पम्प पर पहुंचा। मैंने पहले ही पता कर लिया था कि इस रास्ते पर अब थराली से आगे कोई और पैट्रोल पम्प नही पडेगा। इसलिए यहीं से टेंक फुल करा लिया। स्कूटी स्पेसली "ज्यूपिटर" के साथ एक यही समस्या है कि इसकी टंकी बहुत ही छोटी है। सिर्फ चार लीटर ही पैट्रोल आ पाता है हद मार के। हाँलाकि माइलेज अच्छा और पहाड पर भी यह 40-45 का एवरेज देती है। भाई टीवीएस वालों से गुजारिश है कि इसकी टंकी थोडी बडी की जाय। कम से कम छहः लीटर की तो कर ही दो यार !

खैर, थराली से वाण लगभग 50 किमी दूर है और चार लीटर पैट्रोल में तो इतनी दूर लगभग दो बार आना जाना कर देगी अपनी "ज्यूपिटर"। थराली से देवाल, मुंदोली होते हुए मैं करीब साढे पांच - पौने छहः बजे लोहाजंग पहुंचा। देवाल के बाद से यह रास्ता पिंडर नदी का साथ छोड देता है। यहाँ से पिंडर दांयी ओर मुडकर अपने उद्गम स्थल कुमाऊं के खाती गांव से उपर पिंडारी ग्लेशियर की तरफ चली जाती है - हाँ वही मतलब उधर से आती है देवाल की तरफ। मुंदोली से एक अंकल जी ने मुझसे लिफ्ट ले ली। बातों बातों में मैंने उनको बताया कि मैं अकेला रुपकुंड जा रहा हूँ तो बोले कि वहां तो आजकल बहुत भीड है। रहने और खाने की दिक्कत हो जायेगी। कोई लोकल को ले जाओ। मैंने कहा ठीक है लोहाजंग जाकर देखता हूँ क्या करना है। मैंने लोहाजंग पहुंचकर पता किया तो यहाँ भी यही बताया गया कि उपर काफी भीड है। बेदनी और भगुवाबासा में रुकने की दिक्कत आयेगी। अपना टेंट और स्लीपिंग बैग वगरह ले जाओ ताकि कोई दिक्कत ना रहे। बात भी सही थी इन लोगों की। वैसे तो मुझे पता था कि बेदनी, पत्थर नाचनी और भगुवाबासा तीनों जगहों पर ढाबे हैं। मगर अगर कहीं एक जगह भी रुकने की व्यवस्था नही मिली तो दिक्कत हो जायेगी। यही सोचकर मैंने एक पोर्टर कम गाइड कर लिया। जो अंकल मुंदोली से मेरी स्कूटी पर आये थे उन्होने ही अपने बेटे से बात करा दी। 600 रुपये प्रतिदिन प्लस खाना अलग से तय हुआ। साथ ही पास की एक दुकान से एक टेंट, दो स्लीपिंग बैग और गद्दे ले लिये गये। कुल मिलाकर तीनों चीजों का किराया 340 रुपये प्रतिदिन। अंकल जी और उनका बेटा गजेंद्र जो कि कल से मेरे साथ तीन-चार दिन की रुपकुंड यात्रा पर जाने वाला था, लोहाजंग से पांच किमी नीचे बांक गांव के रहने वाले थे। कल सुबह चलने की सारी तैयारी होने पर ये दोनों बाप-बेटे अपने घर के लिए निकल गये।

लोहाजंग में मैंने 100 रुपये का एक डोरमैट्री लिया। यहाँ से नंदाघुंटी चोटी साफ दिखायी दे रही थी। सामने वाले ढाबे पर खाना खाकर, थोडा बहुत टहलकर मैं आराम से सोने चला गया। अब बस कल सबेरे आराम से सात-आठ बजे निकलेंगे यहाँ से। स्कूटी से वाण तक जायेंगे और स्कूटी वहीं खडी करके ट्रैकिंग शुरू कर देंगे।

देवप्रयाग से पौडी, सतपुली और कोटद्वार और न जाने कहाँ - कहाँ जाने का रास्ता
लगता है संगम पर कुछ लोग अपने पाप धो रहे हैं !! हाँ मतलब स्नान कर रहे हैं भाई।

उपर मेन रास्ते से अलकनन्दा नदी में दिखता धारी देवी मंदिर
थोडा करीब से
जय मां धारी देवी
धारी देवी मंदिर के दूसरी ओर बैठे कुछ श्रधालु
नारायणबगड के पास पिंडर नदी
नारायणबगड के पास हुआ लैंड्स्लाइड और उसकी वजह से रोड ब्लॉक - बगल में खडी अपनी धन्नो आगे जाने के लिए ट्रक के हटने का इंतजार कर रही है।
बिस्तर पर चौधरी का सारा समान
लोहाजंग से दिखती नंदाघुंटी चोटी
लोहाजंग का मेन चौराहा
रुपकुंड, जुनार्गली और उससे आगे सुतोल तक का ट्रैक मैप

ट्रैकिंग हेतु नियम, शर्ते व प्रतिबंध


अगले दिन सुबह जूम लेंस के साथ फुल जूम करके लोहाजंग से लिया गया नंदाघुंटी का एक फोटो
अगले भाग में जारी.......

इस यात्रा वृतांत के किसी भी भाग को नीचे दिए गए लिंक्स पर क्लिक करके पढा जा सकता है।
१. रूपकुंड ट्रैक - हरिद्वार से लोहाजंग
२. रूपकुंड ट्रैक - लोहाजंग से बेदनी बुग्याल
३. रूपकुंड ट्रैक - बेदनी बुग्याल से भगुवाबासा
४. रूपकुंड ट्रैक - भगुआबासा से रुपकुंड लेक और वापस आली बुग्याल
५. रूपकुंड से वापस हरिद्वार - बद्रीनाथ होते हुए

5 टिप्‍पणियां:

  1. दो बार रुपकुण्ड यात्रा करने का मौका मिला है,
    संयोग से दोनों बार दिल्ली से ही बाइक पर वाण तक गया हूँ।
    आपकी यात्रा देखकर आगे की यात्रा के पलों को पढने की बारी है।
    स्कूटी के साथ दो लीटर की बोतल भर कर रखनी चाहिए। लेह व गंगोत्री में तो समस्या हो जायेगी।

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    1. हाँ भाई, एक दस लीटर की कैन लेकर जाउंगा उसके लिए तो।

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  2. मोहित भाई नमस्कार। मुझे लगता है कि आज मुझे मेरे गुरु मिल गए।यात्रा वृत्तांत बीच में पढ़ना छोड़कर लिख रहा हूं।मुझे भी स्कूटी से ही घूमने का बहुत शौक है।में नैनीताल,रानीखेत,लैंसडाउन , महावीर जी,ज्वाला देवी, पालमपुर, देहरादून, ऋषिकेश,नीलकंठ ,जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क सभी जगह अपनी स्कूटी से ही घूमा हुआ हूं।बस बद्रीनाथ जाने की हिममत जुटा रहा था कि आज आपका ये ब्लॉग पढ़ने को मिला,और वह भी स्कूटी से,सच में मजा आ गया, हिम्मत बन गई।सादर अभिवादन स्वीकार करें🙏

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