बुधवार, 16 दिसंबर 2020

ताडकेश्वर महादेव से वापस हरिद्वार वाया लैंसडाउन - २

13 ऑक्टूबर 2018, शनिवार
आज रविवार है और मैं ताडकेश्वर में हूँ। कल रात को ताडकेश्वर बाबा के दर्शन के बाद डिनर करके मैंं नीचे वाली धर्मशाला मेंं जाकर सो गया था। सुबह उठा तो देखा मेरे बगल वाले रुम में भी दो लडके सोये हुए हैं। येे लोग मेरठ से आये उन परिवारोंं के बच्चे हैं। रात मैं अपने रुम में आते ही सो गया था तो मुझे पता ही नही चला वो कब में आकर मेरे बगल वाले रुम में सो गये। सुबह फ्रैश होकर मैं एक बार फिर भोले बाबा के दर्शन कर आया। हर जगह की तरह यहाँ भी मैंने एक ही बात भोलेनाथ से कही - 
 
सर्वे भवंतु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामय। सर्वे भद्राणी पश्यंतु, मा कश्चिद दुख: भाग्यभवेत्॥  
 
इस यात्रा को किए करीब दो साल से ज्यादा का समय हो चुका है। अत: यात्रा की अधिकतर बाते भूल गया हूँ। हाँ वापसी में आते हुए लेंसडाउन घूमकर आया। यहाँ टिपिन टॉप, भुल्ला ताल वगरह एक दो घूमने की जगह है। कुल मिलाकर लेंसडाउन पूरा छावनी प्लेस ही है। टिपिन टॉप से उत्तराखंड के वृहद हिमालय की लगभग सभी चोटियां दिखायी देती हैं। लेंसडाउन से कोटद्वार होते हुए हरिद्वार पहुंचा। रास्ते में कोटद्वार का प्रसिद्ध सिधबली मंदिर भी देखा। बहुत भीड थी। 
 

यहाँ में ताडकेश्वर में रात को रुका था।

ताडकेश्वर परिकर्मा मार्ग

ताडकेश्वर बाबा की जय


टिपिन-टॉप से सुदूर दिखता हिमालय


लेंसडाउन से दिखता जहरियाखाल


भुल्ला ताल और उसके आसपास का दृश्य



जय सिद्धबली बाबा

सिद्धबली मंदिर के अंदर का दृश्य



इस यात्रा के बाद तीन-चार यात्राएं और हो चुकि हैं जिसमें जनवरी - फरवरी 2019 में परिवार के साथ की गयी टिहरी लेक, धनौल्टी और सुरकंडा देवी की बर्फ वाली यात्रा; फरवरी 2020 में "यात्रा चर्चा परिवार" के साथी राजीव जी, सुभाष मान जी, देव रावत सर और नरेश कैलाशी जी के साथ की गई नागटिब्बा यात्रा शामिल है। इन्हे आज तक न जाने क्यों लिख नही पाया हूँ। आगे भोलेनाथ की कृपा रही तो कोरोनाकाल के बाद यात्राएं जारी रहेंगी, शायद लिखना भी हो। 
जय भोलेनाथ ।

गुरुवार, 1 नवंबर 2018

नीलेश्वर महादेव से ताडकेश्वर महादेव की एक अचानक यात्रा - १

13 ऑक्टूबर 2018, शनिवार
हर रोज की तरह मैं आज भी ऑफिस गया। चुंकि प्लांट ऑपरेशन है, अत: हमारी ड्यूटी सुबह सात बजे से शुरु होती है। थोडा बहुत काम करने के बाद करीब साढे आठ बजे हम लोग चाय पीते हैं और थोडी बहुत गपशप करते हैं। हमेशा की तरह आज भी प्रदीप चाय बनाने लगा और हम ऑफिस वाले दोस्तों के बीच न जाने कैसे चर्चा शुरु हो गयी खैंट पर्वत की। कुछ महिनों पहले न्यूज में देखा था कि टिहरी गढवाल में कोई खैंट पर्वत है जहाँ एक माता का मंदिर है जिसमेंं रात को परियां आती हैं। न्यूज में दिखाया गया था कि सचमुच उस मंदिर में कुछ दैवीय शक्ति है। न्यूज वालों के पास कोई मीटरनुमा मशीन थी जो करीब आधी रात के समय मंदिर के आसपास खैंट पर्वत पर किसी कॉस्मिक एनर्जी या दैवीय शक्ति की मौजूदगी दर्शा रही थी। हम लोग बात करने लगे कि यार यहाँ चला जाय। गूगल बाबा से पूछा कि कहाँ है ये खैंट पर्वत तो पता चला कि टिहरी बांध पार करके करीब 15-20 किमी घनसाली रोड पर चलने के बाद एक रास्ता उल्टे हाथ को कटता है जो भिलांगना नदी पार करके आगे थाट गांव जाता है, जहाँ से खैंट पर्वत स्थित मंदिर तक पांच किमी का पैदल रास्ता है। कल संडे है तो आज चलने की बात होने लगी। हरिद्वार से थाट गांव की दूरी देखी तो 160 किमी के करीब। मतलब, अगर आज जाना है तो तुरंत निकलना होगा। हिसाब, किताब नहींं बना यहाँ जाने का और इस "परियों के देश" को भी "फिर कभी" वाली लिस्ट में डाल दिया गया, जिसमेंं पहले से ही न जाने कितने डेस्टिनेशन पडे हुए हैं। फिर बात चली सुरकंडा देवी जाने की। सुरकंडा देवी मंदिर के बारे में तो आप सब जानते ही होंगे। चम्बा से धनोल्टी रोड पर कद्दूखाल के पास वाली पहाडी पर स्थित है। मेरे ऑफिस के कई लोग यहाँ जा चुके हैं। मेरा ही बचा है। आजकल नवराते भी चल रहे हैं। मन करने लगा कि सुरकंडा देवी चला जाय। फिर से दूरी नापने के लिए गूगल बाबा की शरण ली। इसी बीच प्रदीप चाय भी ले आया। 

चाय की चुश्कियों के साथ सुरकंडा जाने का विचार जोर पकडने लगा। इसी बीच एक और जगह के बारे में हमारा "डिसकशन" शुरु हो गया। आशीष अभी 2-3 महीने पहले लैंसडोन से आगे कहींं किसी महादेव मंदिर गया था। क्या नाम था उस मंदिर का? -- हाँ याद आया, ताडकेश्वर महादेव मंदिर। लैंसडोन से करीब 4 किमी पहले एक रास्ता सीधे हाथ को नीचे की तरफ उतरता है जो रिखणीखाल होते हुए आगे बीरोंखाल तक जाता है। रिखणीखाल यहाँ से करीब 50 किमी दूर है। जबकि इसी रास्ते पर करीब 32 किमी चलने के बाद एक जगह आती है "चौखुलियाखाल"। यहाँ से उल्टे हाथ को एक रास्ता कटता है जो पांच किमी दूर स्थित ताडकेश्वर महादेव तक जाता है। ये पूरा इलाका "अनक्सप्लोरड" है और इधर काफी कम ही लोग जाते हैं। हाँ, सावन के महीने में बाकी और शिवालयों की तरह यहाँ भी थोडी बहुत भीडभाड हो जाया करती है। चाय खत्म होते-2 मन बना लिया कि आज भोले बाबा के पास ही चला जाय - मातारानी से माफी मांग ली गयी। वैसे भी नवराते हैं तो उधर काफी भीड मिलने की पूरी - पूरी उम्मीद थी। ऑफिस के किसी अन्य साथी ने जाने में कोई खास रुची नही दिखाई और न ही मुझे इसकी जरुरत थी। अपनी ज्यादातर यात्राएं वैसे भी अकेले ही होती हैं। ताडकेश्वर महादेव भी हरिद्वार से करीब 150 किमी दूर है इसलिए करीब 11 बजे मैं अकेला ही हरिद्वार से इस यात्रा के लिए निकल लिया। सीधे हरिद्वार बाइपास से होता हुआ मैं चंडी चौक पहुंचा और नजीबाबाद वाला रास्ता पकडा। जहाँ से चंडी देवी जानेवाले उडनखटोले उडते हैं, वहां से करीब 100-200 मीटर आगे जाने पर उल्टे हाथ की तरफ नील पहाडी है और इसी पर स्थित है नीलेश्वर महादेव मंदिर। आप लगभग सभी लोग कभी न कभी हरिद्वार जरुर आये होंगे लेकिन भोले की नगरी में कम लोग ही भोलेनाथ के इस छोटे से धाम जाते हैं। काफी पौराणिक महत्व है इस मंदिर का भी। शिव महापुराण में इस मंदिर का उल्लेख मिलता है। नीलेश्वर महादेव मंदिर भी दक्षेश्वर मंदिर के काल से ही यहां स्थित हैं। श्रवण मास में यहां पर विशेष पूजा अर्चना होती है। शिव महापुराण में वर्णन है कि सती के हवन कुंड में आत्मदाह करने के बाद, शिव ने अपने गणों को दक्ष प्रजापति का यज्ञ नष्ट करने के आदेश दिए थे। ऐसी श्रुतियां हैं कि भगवान शंकर के क्रौध के कारण ही यह पहाड नीला होकर नील पर्वत के नाम से प्रसिद्ध हुआ।  मैं एक बार नीलेश्वर महादेव मंदिर जा चुका हूँ,तो इस बार भी जैसे ही इसके पास से गुजरा तो भोलेबाबा के दर्शन करके ही आगे बढा। और इस यात्रा को नाम दिया "नीलेश्वर महादेव से ताडकेश्वर महादेव की यात्रा"।

नीलेश्वर महादेव के दर्शन करके मैं आगे कोटद्वार के ओर निकल लिया। चिडियापुर उत्तराखंड - यूपी बोर्डर से थोडा पहले एक रास्ता पूर्वी गंग नहर के साथ- साथ जाता है, इस रास्ते से कोटद्वार जाने वालों को नजीबाबाद जाने की जरुरत नही पडती। शुरु में रास्ता काफी टूटा हुआ है लेकिन 5-7 किमी के बाद अच्छा बना हुआ है। आराम से साढे बारह बजे तक कोटद्वार पहुंच गया। ठीकठाक भीड वाला कस्बा है कोटद्वार। यहाँ सिर्फ स्कूटी के टंकी फुल करायी और आगे के लिए निकल लिया। कोटद्वार में हाँलाकि सुप्रसिद्ध सिद्धबली मंदिर है, लेकिन इसे कल वापसी के दौरान देखने के लिए छोड दिया। चुंकि घर से बिना खाना खाये ही चला था इसलिए अब भूख लगनी शुरु हो गई थी। करीब 10 किमी चलने के बाद एक ढाबे पर खाना खाया तो पेट को शांति मिली। यहाँ से थोडी देर बाद दुगड्डा पहुंचा। यहाँ से एक रास्ता पता नही कहाँ - 2 और अंत में नीलकंठ महादेव होते हुए ऋषिकेश के लिए जाता है। यहाँ से नीलकंठ महादेव 92 किमी दूर है। ये रास्ता भी बहुत कम लोगों का देखा हुआ है। वापसी के समय देखुंगा अगर इस रास्ते से जा पाया तो! दुगड्डा से थोडा आगे से एक रास्ता गुमखाल होते हुए पौडी जाता है जबकि दूसरा रास्ता लैंसडोन,जहरियाखाल होते हुए गुमखाल और आगे पौडी जाता है। मैं लैंसडोन वाले रास्ते पर हो लिया। थोडा चलते ही चढाई शुरु हो गयी और साथ ही चीड का जंगल भी आ गया। चीड का जंगल बहुत ही सुंदर लगता है और चीड के जंगल में सुंदर नजारों को अपने कैमरे में कैद करने के लिए लैंसडोन से करीब 10 किमी पहले एक जगह मैंने अपनी स्कूटी रोकी और जी भर के फोटो लिये। लैंसडोन से चार किमी पहले ही रिखणीखाल वाले रास्ते पर मुड गया। शुरु में करीब 10 - 12 किमी तक रास्ता उतराई का है। मेरे आगे एक जीप जा रही थी तो मैंने इसके पीछे पीछे ही चलने में अपनी भलाई समझी। करीब 15 किमी दूर सिसल्डी में मैंने इस जीप को पीछे छोडा। इस 15 किमी के रास्ते में मुझे विभिन्न जगहों के बारे में जानकारी देते कई बोर्ड लगे दिखाई दिये, मगर इनमेंं से किसी भी जगह का नाम मैंने आज से पहले कभी नही सुना था।

शाम को पांच बजे के आसपास मैं ताडकेश्वर मंदिर पहुंच गया। लैंसडाउन से 32 किमी दूर चौखुलियाखाल से ताडकेश्वर महादेव तक पांच किमी का पक्का रास्ता बना हुआ है। रास्ते में एक गांव भी मिला जहाँ रुकने खाने का इंतजाम था, मगर मैं ये सोचकर आगे निकल गया कि मंदिर पर ही किसी धर्मशाला में रुकूंगा। जहाँ सडक खत्म होती है वहीं थोडी से खाली जगह पडी है जिसमेंं यहाँ आने वाले लोग अपनी गाडियां पार्क करते हैं। यहाँ एक पेड के नीचे मैंने भी अपनी स्कूटी पार्क कर दी। मेरे साथ - साथ ही यहाँ दो गाडियां और आकर रुकी। जिनमें दो परिवार मेरठ से आये थे। मूल रुप से ये लोग यहीं आसपास के ही रहने वाले हैं जो पिछले कुछ वर्षों से मेरठ में रह रहे हैं। ये लोग हर साल कम से कम एक बार तडकेश्वर बाबा के दर्शन करने और यहाँ भंडारा करने जरूर आते हैं। इस बार इनके साथ ही मेरठ में इनके पडोसी एक अंकल जी भी आये हुए हैं। बातचीत हुई तो उन अंकल जी के साथ अपनी दोस्ती होनी तय ही थी। ये अंकल जी भी मेरी तरह पहली बार ही ताडकेश्वर आये हैं। पर्किंग के बांयी ओर से नीचे मंदिर तक जाने के लिए थोडी सी सीढियां बनी हुई हैं, फिर आगे करीब 100 मीटर का रास्ता तय करके मंदिर के पास बने एक आश्रम में हम लोग पहुंचे। मेरठ से आये हुए परिवारों ने यहाँ आश्रम में अपने लिए पहले ही कमरे बुक करा रखे थे, आश्रम वाला भी वैसे इनके जान-पहचान वाला ही है। शुरु में तो आश्रम के केयर टेकर ने मुझे भी इन्ही का साथी समझ लिया, सो सबके साथ फ्री में मुझे भी चाय मिल गयी। चाय पीने के बाद मैं और वो अंकल जी भोलेनाथ के दर्शन करने के लिए निकल लिये। बाबा के दर्शन करके जब हम लौटे तो अंधेरा होने लगा था और आश्रम के केयर-टेकर को मेरी असलीयत भी पता चल चुकी थी! इसलिए उन सभी लोगो को होटल में ही रुकवाया गया और मुझे नीचे धर्मशाला में रुकवाया गया, वो भी एक रात के पांच सौ रुपये! अंधेरा हो चुका था और अब ऐसे में मेरे पास यहाँ रुकने के अलावा वापस जाने का ऑपशन भी नही था। इसलिए इधर ही रुक लिया। सारी फोर्मलिटी पूरी करके केयर - टेकर मुझे मेरे रुम में छोड गया। जब से उसे पता चला था कि मैं उस ग्रुप से नही हूँ, तब से मेरे प्रति उसका रवैया भी बदल गया था। "आठ बजे खाना मिलेगा, उपर खाना खाने आ जाना"। मैं खाली खडा उसे देख रहा था। "बर्तन खुद से धोना होगा"। ऐसे ही 2-4 फरमान सुनाकर वो केयर-टेकर चला गया। पूरी धर्मशाला में मैं अकेला था। थोडी देर में ही सन्नाटा मुझे काटने को दौडने लगा। सन्नाटे में भी एक अजीब सी आवाज सुनाई दे रही थी। सन्नाटे की भी आवाज होती है इसका मुझे आज हल्का-2 अहसास हो रहा था। थोडी देर ध्यान लगाने की कोशिश भी की, मगर पंद्रह - बीस मिनट से ज्यादा ध्यान नही लगा सका। वैसे भी मैं कोई ध्यानी नही हूँ, बस किसी तरह रात के खाने का समय होने तक खुद को बिजी रखने के लिए थोडी कोशिश की थी। खैर किसी तरह आठ बजे और मैं उपर आश्रम में खाना खाने भागा।.....    


नीलेश्वर महादेव मंदिर और शिवलिंग

लैंसडाउन से थोडा पहले चीड का जंगल

नीलेश्वर बाबा की जय हो!!

लैंसडाउन से 4 किमी पहले वाला तिराहा। यहाँ से सामने वाला रास्ता ताडकेश्वर, रिखणीखाल जा रहा है जबकि बांयी ओर वाला रास्ता लैंसडाउन
न जाने कौन - कौन सी जगहें हैं ये। 

इधर से भी कोई रास्ता सतपुली के लिए जाता है। 


चौखुलियाखाल

ताडकेश्वर मंदिर तक पहुंचने के लिए इन सीढियों से होकर गुजरना होगा। 
आश्रम के पास से मंदिर की ओर जाता रास्ता
बहुत अच्छी जानकारी
ताडकेश्वर के बारे में कुछ जानकारी
मेरठ से आये ग्रुप में से एक लेडी अपने बेटे को घंटी बजवाते हुए।













मेरठ वाले चाचा दर्शन करने को जा रहे हैं। 


एक बार और जय बाबा ताडकेश्वर

चौखुलियाखाल से आगे रिखणीखाल और बीरोखाल तक जाने वाले रास्ते की जानकारी इस बोर्ड पर लिखी है। यह मार्ग सन 1931 से बनना आरम्भ हुआ और 1942 मे खत्म हुआ। 
अगले भाग में जारी...... 

मंगलवार, 24 जुलाई 2018

पिंडारी ग्लेशियर यात्रा: खाती से वापस हरिद्वार,नैनीताल होते हुए

16 मई 2018, बुधवार
इस यात्रा वृतांत को शुरुआत से पढनें के लिए यहाँ क्लिक करें।
कल शाम मैं और मोनू फुरकिया से पिंडारी ग्लेशियर देखकर वापस खाती पहुँच गए थे। पहले हमारा कफनी ग्लेशियर देखने का भी प्लान था, मगर वो कैंसिल हो गया था। हम कल शाम करीब सवा सात बजे थके हारे खाती के पीडब्लूडी गेस्टहाउस पहुँचे थे। कल हमनें एक दिन में अपने जीवन की सबसे ज्यादा ट्रैकिंग की थी - 33 किमी! थकान का आलम यह था कि जब चौकीदार ने बोला कि इस बार तो आपको पूरा किराया 450 रुपये ही देना होगा तो हमने उससे सिर्फ एक बार कहा कि यार देख ले, परसों तो तुने 200 में ही रुकवा दिया था। फिर उसने बोला कि "कल सबेरे हमारे अधिकारी साहब यहाँ आयेंगे, आज वो खलीधार वाले गेस्ट हाउस में हैं। आप 200 में ये सामने वाले ढाबे के नीचे वाले कमरे में रुक जायिये।" तब हमने भी ज्यादा बात नही की और न ही हममें दम बचा था कि हम पहले उससे बहस करें और फिर गेस्ट हाउस न मिलने पर कहीं और कमरा देखें। "ठीक है", बोलके अपने बैग गेस्ट हाउस में पटके और फैल गये आराम करने के लिए। घुटनों की शामत आ रखी थी, करीब आधा घंटा लेटकर थोडी राहत मिली। फिर मैं उठकर ढाबे पर आ गया। ढाबे वाले से गर्म पानी कराकर हाथ मुँह धुले और फिर ढाबे के पास ही थोडा टहलनें लगा। घुटने में अभी भी हल्का हल्का दर्द हो रहा था। आज यहाँ दो ग्रुप और आ रखे थे। एक ग्रुप में चार लोग थे जो शायद हल्द्वानी से आये थे। दूसरे ग्रुप में तीन लोग थे जो पास के ही किसी गाँव के रहने वाले थे। इनमेंं से एक-दो लोग गोवा में नौकरी करते हैं, वो छुट्टी पर आये हुए थे तो ये लोग पिंडारी में छुट्टियों की मौज मनाने जा रहे हैं। दोनों ही टीमों की दारू पार्टी चल रही थी शायद, क्योंकि ढाबे वाले ने उनके लिए अंडाकरी बना रखा था और प्लेट भर के सलाद डिनर से पहले ही वो लोग अपने रुम में ले गये थे। मैं भी अंडाहारी हूँ तो मैंने डिनर में अंडाकरी और दाल ली। जबकि मोनू अंडा नही खाता है, सतसंगी आदमी है तो उसने आलू की सब्जी और दाल। डिनर करने के तुरंत बाद हम लोग सोने चले गये। 

आज सुबह आराम से छहः बजे जगे। रात थके होने की वजह से बहुत बढिया नींद आयी थी। नित्यकर्म से फारिग होकर जल्दी से हम लोग चलने के लिए तैयार हो गये। बगल वाले ढाबे पर आलू परांठा और दही का नाश्ता करके हम लोगों ने अपनी वापसी की यात्रा शुरु कर दी। प्लान किया कि इस बार कुमाऊँ के रास्ते जायेंगे और अल्मोडा या नैनीताल में जहाँ तक भी अंधेरा हो जायेगा, आज रात वहींं रुक जायेंगे। करीब आधे घंटे में होटल अन्नपूर्णा पहुंचे। यहाँ पिंडारी ग्लेशियर ट्रैक की अंतिम चाय का आनंद लिया गया। खाती से यहाँ तक हमें बहुत सारे बच्चे स्कूल जाते हुए मिले। जो आस-पास बसे छोटे-छोटे गांवों जैकुनी, दऊ, उमला आदि के रहने वाले थे। इन सब गांवों में सिर्फ उमला में ही प्राथमिक विद्यालय है जबकि खाती में हाईस्कूल है। यहाँ मैंने एक बात गौर की, पांच साल से लगाकर पंद्रह -सोलह साल तक का स्कूल जाने वाला हर बच्चा हमें हाथ जोडकर "नमस्ते जी" कहकर हमारा अभिवादन कर रहा था। जबकि हम इनके लिए एकदम अंजान थे। मन बहुत प्रसन्न हुआ पहाड में इतनी दूर रहने वाले इन बच्चों के संस्कारों को देखकर। मैदान में अब ऐसा नही होता - शायद ये इंग्लिश मीडियम और कॉन्वेंट स्कूलों की देन है। इन बच्चों को देखकर हमें हमारे बचपन की याद आ गयी। हम भी बचपन में स्कूल जाते और आते समय जो भी रास्ते में मिलता था उसे ऐसे ही नमस्ते करते थे। थोडा और आगे जैकुनी गांव के पास से सुंदरढूंगा घाटी में स्थित मैकतोली चोटी के दर्शन हुए। मैकतोली के नीचे ही सुंदरढूंगा ग्लेशियर फैला हुआ है। शायद कभी सुंदरढूंगा भी देखने जाना हो! 

साढे आठ बजे के करीब उमला गांव पहुंचे। उमला में एक प्राइमरी स्कूल है। यहाँ प्रार्थना हो रही थी। बच्चों की मधुर आवाज दूर से ही हमारे कानों से होते हुए हमारे मन  मश्तिष्क को शांति प्रदान कर रही थी। बच्चे जोर - जोर से गा रहे थे।
"हे शारदे माँ, हे शारदे माँ
अज्ञानता से हमें तार देना"
माँ शारदा ज्ञान की देवी हैं। और ये नन्हे-मुन्ने हर रोज की तरह अपनी आज की पाठशाला शुरु होने से पहले माँ शारदा की आराधना कर रहे हैं। यहाँ थोडी देर रुककर हम प्रार्थना सुनते रहे। मन को बडा सुकून मिला।

सवा नौ बजे हम खरकिया पहुंचे। यहाँ अपनी "धन्नों" पिछले तीन दिनों से हमारा इंतजार कर रही थी। बगल वाले ढाबे से अपना हैलमेट और बाकी का सामान लेकर ढाबे वाले को राम-राम करके हमनें वापसी की राह पकडी। हम लोगों ने प्लान किया कि हरिद्वार तो एक दिन में पहुंचना मुश्किल है, इसलिए रास्ते में जहाँ भी कहीं अंधेरा हो जायेगा वहीं आज रुक लेंगे। बस ये शुरु के कच्चे रास्ते वाले 40 किमी थोडे दिक्कत वाले थे। उस पर विनायक धार तक तो पूरा चढाई वाला रास्ता था। जैसे इस रास्ते से आये थे, आराम-आराम से स्कूटी चलाते हुए ऐसे ही ये विनायक धार तक का रास्ता पार कर लिया। विनायक धार में हम करीब 15-20 मिनट रुके। एक - एक कप चाय पी और घर वालों को फोन करके बता दिया कि हम सही-सलामत हैं और आज वापस आ रहे हैं, कल तक हरिद्वार पहुंचेंगे। अब आगे भराडी तक और करीब 30 किमी का कच्चा रास्ता बचा था। लेकिन इसमेंं अब उतराई ही उतराई थी। कच्ची सडक और लूज पडे पत्थरों -बजरी पर उतार के समय स्कूटी फिसलने का ज्यादा खतरा रहता है। ये तीस किमी राम-नाम भजते हुए ही पार किये। कर्मी गांव के पास एक बडी अजीब घटना घटी। जब हम लोग कर्मी गांव पार रहे थे तो स्कूटी के आगे कुछ गायें चल रही थी। इनमें से एक गाय का बछडा हमारी स्कूटी के ठीक आगे आ गया। हमनेंं सही समय पर ब्रेक लगाकर स्कूटी को उस बछडे से टकराने से बचा लिया। मगर गाय को लगा कि हमने उसके बच्चे को टक्कर मार दी है और वो फुल गुस्से में हमारे पीछे दौड पडी। अपनी हवा टाइट! मोनू को कहा बेटा स्कूटी तेज भगा नही तो आज मरे! गाय माता आज हमारा काम तमाम कर देगी। गाय ने कम से कम 200 मीटर तक हमारा पीछा किया पर उपर वाले की कृपा से वो हमें कुछ नुकसान न पहुंचा सकी।
     
कर्मी के बाद का काफी रास्ता पिछले तीन दिनों में पक्का हो गया था। इसलिए करीब ग्यारह बजे तक हम लोग भराडी पहुंच गये। बडा सुकून मिला। यहाँ जिस दुकान से जाते समय पैट्रोल लिया था उसी दुकान से एक लीटर पैट्रोल और भरवाया। पौने बारह बजे तक बागेश्वर पहुंचे। यहाँ संगम से थोडा पहले ही एक ढाबे पर लंच किया। कई दिनों बाद आज लंच के दौरान टीवी देखकर खुद को दीन-दुनिया से जुडा महसूस किया। यहाँ "आजतक" चल रहा था। कल यानि 15 मई को कर्नाटक विधान सभा चुनाव के नतीजे आये थे और न्यूज एंकर उसी को लेकर गला फाड रहा था कि "कर्नाटक में भी बीजेपी की बम-बम हो गयी है लेकिन उसे पूर्ण बहुमत नही मिला है।" जैसा की अक्सर न्यूज चैनलों पर होता है 5-6 लोग चुनाव परिणामों पर अपने-अपने तर्क रख रहे थे। खैर, लंच के दौरान ही हमने ढाबे वाले से अल्मोडा के रास्ते के बारे में पता कर लिया और पेटभर खाना खाकर हम बागेश्वर से निकल लिए। पूरा रास्ता बहुत बढिया बना हुआ है। ताकुला, कसारदेवी होते हुए करीब तीन बजे तक हम अल्मोडा पहुंच गये। कसारदेवी मंदिर की इस पूरे इलाके में बडी मान्यता है। और सबसे बढके है इसकी लोकेशन, एक धार के शीर्श पर ये मंदिर स्थित है। साफ मौसम में कसार देवी मंदिर से कुमाऊँ की लगभग सभी बर्फीली चोटियां दिखायी देती हैं। अल्मोडा के रास्ते में हमने बिनसर वाल्डलाइफ सेंक्चुरी भी देखी। अल्मोडा पहुंचकर रामनगर जाने वाले रास्ते के बारे में पता किया तो एक बंदे ने बोला कि रानीखेत वाले रास्ते से निकल जाओ। मगर मुझे उस रास्ते के बारे में मालूम था, वो रास्ता काफी लंबा है। फिर मोनू ने अब तक नैनीताल भी नही देखा था सो हम नैनीताल वाले रास्ते पर निकल गये। नैनीताल से कालाढूंगी होते हुए बाजपुर - काशीपुर के लिए निकल लेंगे। हाँ, चाय की तलब लगी थी तो अल्मोडा में एक दुकान पर चाय जरूर पी ली। 

अल्मोडा से निकलते ही एकदम शानदार सडक मिली जो शायद कुछ टाइम पहले ही बनी होगी। मगर पहाड में इससे अच्छी सडक शायद ही कोई हो। जौरासी से आगे छडा के पास से एक रास्ता दाँयी ओर नदी को पार करके रानीखेत के लिए जाता है। मैं 2015 में अपने परिवार के साथ रानीखेत घूम चुका हूँ। बहुत ही अच्छी जगह है रानीखेत लेकिन सिर्फ पर्यटन के लिहाज से, घुम्मकडी के लिए वहाँ कुछ खास नही है। कैंची-धाम होते हुए करीब पांच बजे तक हम लोग भवाली पहुंचे। यहाँ से आगे का रास्ता तो अपना ही है। 2007-2009 में जब मैं रुद्रपुर में नौकरी करता था तब न जाने कितनी बार आया हूँ मैं इधर। नैनीताल-भीमताल सहित सारे ताल कईं-2 बार देखे हुए हैं। भवाली से नैनीताल पहुंचने में मुश्किल से आधा घंटा लगा। सीधे मॉल रोड पर निकल गये। शाम का समय था और गर्मियों का मौसम, मॉल रोड पर भारी भीड मिली। ये सोचकर होटल के बारे में पता नही किया कि थोडा मॉल रोड घूम लें तब किसी होटल में रुकेंगे। लेकिन थोडी देर घूमने के बाद जैसे ही पहले होटल में गये तो किराया सुनते ही होश उड गये। 2500-3000 रुपये प्रतिदिन। बाप रे!,इतने रुपये में तो हम पिंडारी ग्लेशियर देख आये हैं जितने यहाँ एक दिन रहने के माँग रहे हैं। और हमे तो सिर्फ रात भर रुकना है, सुबह होते ही हरिद्वार के लिए निकल लेना है। 3-4 जगह पता किया, मगर न तो कहीं हमारी बात बननी थी और न ही बनी। अंधेरा होना शुरू हो गया था। आगे खुर्पाताल या उसके आसपास कोई ठीक सा होटल मिलेगा तो वहाँ रुकेंगे, ये सोचकर कालाढूंगी वाले रास्ते पर निकल गये। खुर्पाताल में भी एक होटल में बात की तो वहाँ भी 2500 से कम का कमरा नही था। आगे जाने के सिवा और कोई चारा ना था, मगर ये रास्ता जिम कार्बेट पार्क से एकदम सटा हुआ है, हम चाहकर भी ज्यादा देर तक सफर में नही रह सकते थे। आंखिरकार यहाँ से करीब तीन किमी आगे सडक किनारे एक होटल में 1000 रुपये का एक कमरा लिया और खाना खाकर सो गये।    


अगले दिन सुबह सात बजे उठकर बिना नाश्ता किये ही हरिद्वार के लिए निकल लिये। कालाढूंगी में चाय नाश्ता किया। जिम कार्बेट म्यूजियम अभी शायद खुला नही था और खुला भी होता मोनू शायद ही जाता, क्योंकि उसे अब बस घर दिखायी दे रहा था। बाजपुर-काशीपुर-नजीबाबाद होते हुए करीब तीन बजे तक हम लोग हरिद्वार लौट आये। मोनू आज ही घर के लिए निकल गया। उसे मुजफ्फरनगर में कोई जरूरी काम है। बचपन के मित्र के साथ यात्रा का पूरा आनंद आया। कुछ जगह छूट गयी मगर कोई नही। आगे फिर कभी जाना होगा। 

जैकुनी गांव वालों के आलू के खेत उसके पीछे सुंदरढूंगा और पिंडर घाटी को अलग करने वाला डांडा और सुदूर सुंदरढूंगा घाटी के अंत में दिखती मैकतोली चोटी

मैकतोली चोटी - थोडा जूम करने पर

उमला प्राथमिक विद्यालय में बच्चे प्रार्थना कर रहे हैं। 

राजकीय प्राथमिक विद्यालय उमला

नैनीताल माल रोड पर नैनी झील के किनारे मोनू - ले भाई तुने कभी नैनीताल भी ना देखा था, यो भी दिखा दिया तुझे अबके! 
 आप सबका बहुत बहुत आभार!!!!     

इस यात्रा के किसी भी भाग को यहाँ क्लिक करके पढा जा सकता है।
1. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - हरिद्वार से गैरसैंण
2. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - गैरसैंण से खाती गांव
3. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - खाती से फुरकिया 
4. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - फुरकिया से पिंडारी ग्लेशियर और वापस खाती गांव
5. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - खाती से वापस हरिद्वार, नैनीताल होते हुए    

शुक्रवार, 22 जून 2018

पिंडारी ग्लेशियर यात्रा: फुरकिया से पिंडारी ग्लेशियर और वापस खाती गांव

15 मई 2018, मंगलवार
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आज हमारी पिंडारी यात्रा का चौथा दिन था और हम समुद्रतल से करीब 3200 मीटर की ऊंचाई पर पिंडारी ग्लेशियर मार्ग के अंतिम पडाव फुरकिया में थे। हमारे यात्रा प्लान के हिसाब से आज हमें आठ किमी दूर पिंडारी ग्लेशियर देखकर आना था और वापस द्वाली तक पहुंचना था। फिर कल द्वाली से कफनी ग्लेशियर देखकर वापस खाती जाना था। मगर कल जब हम द्वाली में लंच कर रहे थे तो ढाबे वाले से कफनी ग्लेशियर मार्ग के बारे में हुई बातचीत को सुनकर मोनू ने कफनी जाने के लिए मना कर दिया। मैने दो-चार बार बोला भी कि कोई नी भाई, अगर रास्ता ज्यादा खराब है तो द्वाली से एक बंदे को साथ ले चलेंगे। दो सौ - तीन सौ जो भी वो लेगा, दे देंगे। अब इतनी दूर आये हैं तो दोनों ग्लेशियर देखेंगे। सुना है कि कफनी ग्लेशियर के बिल्कुल करीब तक जा सकते हैं और उसे हाथ से छूकर ठोस बर्फ का अनुभव कर सकते हैं। सो मेरी पूरी इच्छा थी कफनी जाने की। मगर मोनू नही माना और आंखिरकार तय हुआ कि बस पिंडारी देखकर ही चलते हैं। हम लोग सुबह साढे पांच बजे सोकर उठे। वैसे तो हमने कल ढाबे वाले को बोला था कि हमें सुबह सवा चार - साढे चार बजे तक जगा देना। मगर वो पट्ठा आया ही नही उस टाइम जगाने - आया भी तो साढे पांच बजे, जब हम खुद ही उठ गये थे। शायद वो कल वाले बंगाली ग्रुप का नाश्ता बनाने में व्यस्त हो गया था। जब हम उठे तो बंगाली चाय - नाश्ता कर रहे थे। मैंने ढाबे वाले को हमारे लिए भी चाय मैगी बनाने के लिए बोल दिया। 

फ्रैश होकर, चाय - मैगी निपटाकर हम लोग ग्लेशियर के लिए निकल चले। एक बैग में दोनों के रेनकोट रखे और बाकी का सामान दूसरे बैग रखा। समान वाला बैग यहीं ढाबे पर ही छोड दिया। मैंने अपना कैमरा लिया और मोनू ने रेनकोट वाला बैग। बंगाली लोग हमसे करीब चालीस मिनट पहले निकल गये थे। हमसे आगे पुणे से आये बच्चों एक ग्रुप और था। इस ग्रुप में करीब तीस - चालीस बच्चे थे, जो अल्मोडा की किसी एजेंसी के साथ आये थे और कल फुरकिया से चार किमी आगे अपने टेंट्स में रुके थे। फुरकिया से आगे आधे किमी की थोडी ठीक-ठाक सी चढाई के बाद रास्ता मामूली चढाई वाला है। जंगल भी फुरकिया से पहले ही खत्म हो जाता है, आगे सिर्फ हरी घास और बुरांश की खूबसूरती ही साथ देती है। अक्सर बुरांश मार्च - अप्रैल में खिलता है और सुर्ख लाल रंग का होता है। मगर यहाँ बुरांश अभी भी खिल रहा था और इसका रंग भी हल्का गुलाबी  था। करीब तीन किमी चलने के बाद बंगाली अंकल और उनका पोर्टर दिखायी पडे। थोडा और आगे जहाँ पुणे से आये बच्चों के टेंट्स लगे थे, वहांं हमनें अंकल जी को पीछे छोड दिया। बाकी के दोनों बंगाली बंदे करीब एक किमी और आगे थे। उन्हेंं हम लोग पिंडारी बाबा की कुटिया तक ही पकड सके। इधर पुणे वाले बच्चों के टेंट ट्रैक से करीब दो सौ मीटर नीचे पिंडर किनारे लगे हुए थे। वो लोग अभी तक ग्लेशियर जाने के लिए निकले नही थे। अब इतना बडा ग्रुप हो और वो भी बच्चों का तो देर तो होनी ही है। इनमें से ज्यादातर बच्चे महंगे कॉनवेंट स्कूलों में पढने वाले थे। बाद में जब हम ग्लेशियर देखकर लौट रहे थे तब पिंडारी बाबा की कुटिया से आगे ये लोग हमें मिले तो इनके संचालक ने बताया कि ये लोग पिछले 4-5 दिन से इधर हैं। ग्रुप में कुछ बच्चे बहुत पैसे वाले है। सो बहुत जिद्दी भी हैं और चलना पसंद नही करते। 1-2 बच्चों को सर्दी - खांसी की समस्या है तो उनको भी आराम कराना पड रहा है। बेचारा संचालक किसी तरह से इनको मैनेज कर रहा है।

थोडा आगे जाने पर एक झरना मिला। इसमेंं बर्फ जमी पडी थी। पाँच -सात दिन पहले जब उत्तराखंड में मौसम खराब हुआ था तो इधर जमकर बर्फबारी हुई थी। फुरकिया में भी करीब डेढ फीट बर्फ पडी थी। रास्ते और बाकी जगह की बर्फ तो पिंघल गई मगर झरने के रास्ते वाली बर्फ थोडा गहराई में होने की वजह से अभी नही पिंघली थी। यहाँ दो - चार फोटो खींचे और आगे निकल चले। सवा आठ बजे के करीब पिंडारी बाबा की कुटिया पर पहुंचे। यहाँ उडीसा के रहने वाले बाबा धर्मानंद जी पिछले अ‍ट्ठाईस सालों से रह रहे हैं। बाबा पिछले 4-5 दिनों से नीचे किसी काम से गये हुए थे तो कुटिया बंद थी। यहाँ थोडी देर आराम करने के लिए बैठ गये। साथ लायी नमकीन और एक बिस्किट का पैकेट निपटा डाला। जीरो पॉइंट यहाँ से करीब एक किमी दूर है। कहते हैं कभी पिंडारी ग्लेशियर बाबा की कुटिया के पास तक हुआ करता था। मगर आज कई किमी पीछे खिसककर सिर्फ पहाड पर टंगा हुआ सा दिखाई देता है। और इसके दर्शन दूर से ही कर सकते हैं। कुटिया पर थोडी देर आराम करके हम लोग ज़ीरो पॉइंट की ओर निकल लिए। यहाँ से आगे एक बरसाती नदी थी जिसको पार करके हमें सामने वाले पहाड के समानांतर जाना था। कहाँ तक? जहाँ तक जा सकते थे। नदी में पानी नही था, शायद छांगुंच पर्वत की थोडी बहुत बर्फ पिंघलकर इसमें आती होगी। यहाँ चारोंं ओर का दृश्य बहुत ही शानदार है। तीन ओर बर्फ से ढंकी चोटियांं हैं। जो पूर्व से पश्चिम की ओर क्रमशः नंदाकोट, छांगुच, नंदाखाट, पंवालीद्वार और बल्जोरी हैं। इन्ही में से छांगुच और नंदाखाट के बीच फैला है पिंडारी ग्लेशियर।

बिन पानी की नदी को पार करके हम सामने वाले पहाड पर बने रास्ते पर चलने लगे। पिंडर इस पहाड के दूसरी ओर बहुत गहराई में बह रही थी। थोडा आगे जाने पर पिंडारी ज़ीरो पॉइंट का बोर्ड लगा मिला जो कि बहुत मुश्किल से पढने में आ रहा था। न जाने कितने साल पहले इस बोर्ड पर ये लिखा गया होगा और न जाने कब से ये जंग खा खाकर इस हालत में है कि पढा नही जा सकता। मगर आज तक किसी सरकारी विभाग ने इसे दोबारा लिखने की जरुरत नही समझी। हाँलाकि इसको पढने लायक बनाना बहुत जरूरी है क्योंकि ये यहाँ से आगे जाने वालों को सावधान करता है। अक्सर ज़ीरो पॉइंट का ये मतलब समझा जाता है कि बस अब रास्ता खत्म और ठोस बर्फ यानि ग्लेशियर शुरु। मगर यहाँ ऐसा नही है ग्लेशियर तो अभी बहुत दूर है। ज़ीरो पॉइंट से आगे भी रास्ता जा रहा था। मगर हम करीब 200 मीटर ही आगे तक गये होंगे कि एक दिल दहला देने वाला दृश्य दिखा। हम बिल्कुल पहाड की किनारी पर थे। उस ओर आगे व  पीछे जबरदस्त भूस्खलन हो रखा था, और इस भूस्खलन के नीचे बह रही थी पिंडर! यहाँ से आगे जा सकना मुश्किल और जानलेवा दोनो था, सो हम यहीं ठहर गये। ये पूरा इलाका एक महान भूस्खलन क्षेत्र है। हम समुद्रतल से करीब 3670 मीटर की ऊंचाई पर होंगे। सामने छांगुच और नंदाखाट के बीच में टंगा पिंडारी ग्लेशियर साफ दिखायी पड रहा था। ग्लेशियर के नीचे का हिस्सा कुछ काला दिखाई दे रहा था। यहाँ हमनेंं थोडी देर रुककर कुछ फोटों ली। यहाँ से नंदाकोट, छांगुच, नंदाखाट, पंवालीद्वार और बल्जोरी के बडे भव्य दर्शन हो रहे थे। पिंडारी ग्लेशियर के ऊपर करीब 5312 मीटर ऊंचाई पर कुमाऊँ के पहले कमिश्नर जॉर्ज विलियम ट्रेल के नाम पर प्रसिद्ध "ट्रेल पास" है, जो पिंडारी ग्लेशियर को जोहार के मिलम घाटी से जोडता है। ट्रेल पास उत्तराखंड के कठिनतम दर्रों में से एक है। इस दर्रे को पार करने के लिए पर्वतारोही पिंडारी ज़ीरो पॉइंट के आसपास अपना बेस कैम्प बनाते हैं और यहाँ से आगे तख्ता कैम्प के बाद एडवांस कैम्प लगाकर दर्रा पार करते हैं। ट्रेल पास के बाद तीखा ढलान है, जिसमें लगभग दो सौ मीटर रोप से उतरकर नंदा देवी ईस्ट ग्लेशियर पहुंचते हैं। आगे फिर ल्वाँ ग्लेशियर पार करके ल्वाँ गाँव, मार्तोली, बोगड्यार होते हुए मुनस्यारी पहुंचा जाता है। 

नौ बजे के करीब हम यहाँ से चल दिये। "सुखी नदी" से पहले ही हमें बंगाली अंकल और उनका ग्रुप मिला, जबकि नदी पर पुणे वाले बच्चे मिले। बाबा की कुटिया पर पहुंचकर थोडी सांस ली। यहाँ कुछ खच्चर वाले बाबा का राशन पानी लेकर आये हुए थे। इनसे बाबा के बारे में पूछा तो पता चला बाबा इस ओर ही आ रहे हैं। कल वो द्वाली में रुके थे। हम बाबा से मिलना तो चाहते थे लेकिन यहाँ ज्यादा देर रुककर इंतजार करना भी हमें ठीक नही लगा। बाबा से रास्ते में ही मिल लेंगे, ऐसा सोचकर अपना रेनकोट वाला बैग उठाया और यहाँ से नीचे की ओर निकल चले। मगर हम मुश्किल से पचास मीटर ही गये थे कि सामने से बाबा आते दिखायी दिये। पास पहुंचकर बाबा को प्रणाम किया। बातें हुईं तो बाबा ने बताया कि वो नीचे कपकोट में किसी एन.जी.ओ. की मीटिंग में गये थे। उनके सहयोग़ से वो पिंडर घाटी में बसे इन सुदूर गांवोंं में डॉक्टरों की तैनाती को लेकर प्रयासरत हैं। बाबा यहाँ के आसपास के गांववालों के मुद्दोंं को प्रशासन के समक्ष उठाते रहते हैं, जिससे इस इलाके के लोग बाबा की काफी इज्जत करते हैं और उन्हे "पिंडारी बाबा" की संज्ञा दी हुई है। बाबा के काफी आग्रह पर हम लोग उनकी कुटिया पर वापस आ गये। यहाँ आने वाले हर एक पर्यटक की तरह बाबा ने हमें भी बिना चाय पिये नही जाने दिया। चाय पीकर बाबा से विदा ली ओर नीचे फुरकिया की तरफ दौड लगा दी। आज अगर मौसम सही रहा तो खाती के उसी गेस्ट हाउस में रुकना है जिसमेंं हम परसों रुके थे। यहाँ से हमारे साथ -2 बधियाकोट गांव के रहने वाले एक शख्श चल रहे थे, उनका नाम भूल गया हूँ। वो यहाँ पीडब्लूडी विभाग के ठेकेदार के अंतर्गत मजदूरी का कार्य करते हैं। पिंडारी बाबा की कुटिया के नीचे जहाँ हमें बाबा आते हुए मिले थे, वहां एक यात्री शेड बन रहा है। ये सज्जन यहाँ से एक लोहे का भारी भरकम एंगल कंधे पर लाधकर नीचे फुरकिया में बन रहे यात्री शेड पर ले जा रहे हैं। हम लोग साथ-2 चल रहे थे तो बातें होना स्वाभाविक था। पेश है उसी बातचीत के कुछ अंश... 
मैंने इन सज्जन से पूछा, "यहाँ काम करके कितना कमा लेते हो भाई जी?" 
"भाजी सात - आठ हजार के करीब कमा लेता हूँ महीने के, कभी कभार किसी पर्यटक के साथ चला जाता हूँ तो वहां से भी कुछ मिल जाता है।" 
"हर रोज घर से ही आना - जाना करते हो क्या? कभी मैदान में गये हो?"
"नही भाजी, हफ्ते में एक बार चला जाता हूँ घर का राशन-पानी लेकर। हाँ, एक -डेढ साल तक हल्द्वानी में था, लेकिन मैदान में रहने खाने का बहुत खर्चा हो जाता है इसलिए वापस इधर ही आ गया।"
मैंने खाती गांव के काली मंदिर के बारे में पूछा तो इन भाई जी ने बताया कि पूरे क्षेत्र में काली माता की बहुत मान्यता है। नवरातों के समय मे यहाँ प्रमुख धार्मिक आयोजन होता है जिसमेंं सब आस-पास के गांवों के लोग इकट्ठा होते हैं। मैंने फिर पूछा यहाँ बलि-प्रथा अभी भी है क्या? तो भाजी अटकते हुए से बोले कि अब नही है, पहले तो बहुत बलि दी जाती थी। फिर धीमीं सी आवाज में बोले, "हाँ, अभी भी साल में एक बार बलि दी जाती है।" मैं जानता था कि पहाडों में कहीं - कहीं अभी भी ये प्रथा है इसलिए मैंने जानबूझकर इन भाजी से ये बात कंफर्म करने के लिए पूछी थी। हाँलाकि मैं बलि प्रथा का विरोधी हूँ, मगर फिर भी मैंने भाजी से इस बारे में कुछ नही कहा। ऐसे ही बाते करते हुए अपनी फुल स्पीड पर चलते हुए हम लोग करीब सवा घंटे में ही फुरकिया पहुंच गये।

फुरकिया में आज हमें वो बंगालियों का ग्रुप मिला जो परसों खाती में मिला था। ये लोग आज यहाँ पहुंचे हैं और हम अब नीचे जाने वाले हैं। फुरकिया में हमने कुछ नही खाया। बस अपना सामान वाला बैग उठाया, थोडी देर आराम किया और ढाबे वाले का हिसाब करके द्वाली के लिए निकल गये। 

दो बजे थे जब हम द्वाली पहुंचे। यहाँ भी बस दस-पन्द्रह मिनट आराम करके हम खाती के लिए निकल लिए। अब हमारी रफ्तार थोडी धीमी हो गयी थी। सुबह से करीब 21 किमी चल चुके थे जबकि अभी लगभग 12 किमी और चलना था। पाँच बजे के करीब झरनें के पास वाली उसी खडक सिंह की दुकान पर पहुँचे जहाँ परसों खाती से खरकिया जाते समय रुककर चाय पी थी। यहाँ खडक सिंह जी हमें हमारा इंतजार करते मिले। दरअसल बाबा कि कुटिया से जो खच्चर वाले आये थे उन्होनें ही खडक सिंह जी को बताया कि पीछे दो पागल आ रहे हैं जो आज ही खाती पहुंचेगे। इसलिए खडक सिंह जी हमारा इंतजार कर रहे थे। यहाँ थोडा आराम किया, चाय पी और एक-एक नमकीन का 10 रुपये वाला पैकेट खाया। करीब आधे घंटे बाद खडक सिंह जी अपना आज का काम खत्म कर हमारे साथ यहाँ से निकल लिये। मेरे कई बार मना करने पर भी खडक सिंह जी ने मेरा बैग ले लिया और यहाँ से खाती तक वो हमारे साथ-साथ ही चले। थोडी देर में निगलाधार वाले पुल के पास पहुंचे तो खडक सिंह जी ने आदेश दिया कि शॉर्टकट वाले रास्ते से ही चलना है, सीधा निकलो। यहाँ एक शिकारी भी मिले जो अपनी दुनाली लिए किसी जंगली जानवर की तलाश में आज सुबह से ही इधर जमेंं हुए थे मगर उन्हे कुछ हाथ नही लगा। सात बजे के करीब हमने खाती में प्रवेश किया। जहाँ काली मंदिर जाने वाली सीढियां शुरु होती हैं, उससे पहले ही दाहिने हाथ की ओर खडक सिंह जी का घर था। खडक सिंह जी को अलविदा कह कर हम अंधेरा होने से पहले ही पीडब्लूडी के डाकबंगले पर पहुंच गये।
फुरकिया से  चलने के बाद सबसे पहले नंदाखाट के दर्शन होते हैं।

मोनू लाठिवाल - मेरा मतलब है मोनू लाठी वाला !! 

नंदाखाट और पंवालीद्वार 

इसका नाम नही पता 

रास्ते में खडा मोनू और आगे दिखती नंदाखाट, पंवालीद्वार और बल्जोरी चोटियां 

रास्ते में बर्फ के नाले पर 

कुछ दिन पहले पडी ताजा बर्फ

थोडा और आगे जाने पर नंदाखाट का दृश्य 

नंदाखाट और पंवालीद्वार चोटी की जोडी 

पिंडारी ग्लेशियर के प्रथम दर्शन - दांये और बायेंं क्रमशः छांगुच और नंदाखाट 

ग्लेशियर का प्रथम दृश्य थोडा जूम करने पर 

स्वामीं धर्मानंद बाबा जी की कुटिया पर 

बाबा की कुटिया से नंदाखाट के भव्य दर्शन 

बाबा की कुटिया के अंदर का दृश्य। अभी बाबा जी नही आये हैं इसलिए सामने स्थित नंदा देवी मंदिर का ताला लगा हुआ है। बाबा के आ जाने पर हमने यहाँ माँ नंदा के दर्शन किए थे। 

बाबा की कुटिया से दिखती छांगुच चोटी और पिंडारी ग्लेशियर 

"सूखी नदी" के रास्ते में मोनू

इसी रास्ते में बैठे हुए दोनो बंगाली,तीसरे बंगाली अंकल जी का इंतजार कर रहे हैं। 

पिंडारी ज़ीरो पॉइंट से छांगुच दर्शन 

पिंडारी ज़ीरो पॉइंट पर लगा जर्जर बोर्ड। अगर किसी को दिख जाये तो ये  दर्शा रहा है कि "आगे खतरा है"

पिंडारी ज़ीरो पॉइंट से आगे भी रास्ता जा रहा है। ज़ीरो पॉइंट से दिखती नंदाकोट और छांगुच चोटी 

पिंडारी ग्लेशियर से आ रही पिंडर की धारा 

मोनू भूस्खलन देख रहा है। 

इसी खतरनाक रास्ते पर हमारी वॉट लगी थी। बस हम लोग सामने तक ही गये थे। 

पिंडारी ग्लेशियर  - अद्भुत, अतिसुंदर 

भूस्खलन और नीचे ग्लेशियर से आ रही पिंडर 

ये पूरा इलाका एक महान भूस्खलन क्षेत्र है। 

एक बार और पिंडारी ग्लेशियर के दर्शन कर लो भाई लोग! 

ज़ीरो पॉइंट के पास से वापस नीचे का दृश्य - अभी सुबह के पौने नौ बजे हैं और अभी से घाटी के ओर से बादल आने शुरु हो गये हैं। दोपहर बाद तक तो इस इलाके में इतने बादल छा जाते हैं कि आप ग्लेशियर के दर्शन नही कर सकते। 

"सूखी नदी" के पास नीचे उतरता मोनू और उसके उपर थोडा दायीं ओर दिखता पुणे से आये बच्चों का समूह 

बाबा जी की कुटिया से थोडा उपर -फोटो को बडा करने पर आप बच्चों वाले ग्रुप को पिंडारी ज़ीरो पॉइंट की ओर बढते देख सकते हैं।  

"मैदान मार लिया" वाली मुद्रा में मोनू

वापस बाबाजी की कुटिया पर आराम करता मोनू और नीचे से बाबा का राशन-पानी लेकर आये खच्चर वाले सामान उतारते हुए। 

स्वामी धर्मानंद जी महाराज उर्फ पिंडारी बाबा को चौधरी साब की राम राम 

बाबा के साथ "जाट बाबा" 

वापसी के समय फुरकिया के रास्ते में खिले बुरांश 
अगले भाग में जारी....

इस यात्रा के किसी भी भाग को यहाँ क्लिक करके पढा जा सकता है।
1. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - हरिद्वार से गैरसैंण
2. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - गैरसैंण से खाती गांव
3. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - खाती से फुरकिया 
4. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - फुरकिया से पिंडारी ग्लेशियर और वापस खाती गांव
5. पिंडारी ग्लेशियर यात्रा - खाती से वापस हरिद्वार, नैनीताल होते हुए